चिंगारी को यूॅं हवा दे रहे हो
कि जैसे कोई बस्ती जला रहे हो।
आसमां मंे चमकते हुए तारों को देखकर
क्यों व्यर्थ मे खुद को आज़मा रहे हो।
खु़द ही डुबो के कष्ती को यँू भँवर में,
इल्जाम दूसरों पर लगाए जा रहे हो।
यॅूं अपनी बुलन्दी को देखकर इतराने वाले
वक्त को क्यों गवाँए जा रहे हो।
खाक हो जाएगा ये जिस्म एक दिन
क्यों इस पर इतना गु़मा किए जा रहे हो।
कभी तो मिलेंगे निशा मंजिल के तुम्हें
ऐसे क्यों बेहाल हुए जा रहे हो।
साँसों का सिलसिला जाने कब रूक जाए
तभी तो रोज़ जशन मनाए जा रहे हो।
सुनीता शर्मा
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY