Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अनुत्तरित प्रश्न

 

एक जंगल था ,

बहुत प्यारा था

सभी की आँख का तारा था।

वक्त की आंधी आई,

सभ्यता चमचमाती आई।

इस सभ्यता के हाथ में आरी थी।

जो काटती गई जंगलों को

बनते गए ,आलीशान मकान ,

चौखटें ,दरवाजे ,दहेज़ के फर्नीचर।

मिटते गए जंगल सिसकते रहे पेड़

और हम सब देते रहे भाषण

बन कर मुख्य अतिथि वनमहोत्सव में।

हर आरी बन गई चौकीदार।

जंगल के जागरूक कातिल

बन कर उसके मसीहा नोचते रहे गोस्त उसका।

मनाते रहे जंगल में मंगल।

औद्योगिक दावानल में जलते

आसपास के जंगल चीखते हैं।

और हमारे बौने व्यक्तित्व अनसुना कर चीख को ,

मनाते हैं पर्यावरण दिवस।

सिसकती शक्कर नदी के सुलगते सवाल

मौन कर देते हैं हमारे व्यक्तित्व को।

पिछले साल कितने पौधे मरे ?

कितने पेड़ कट कर आलीशान महलों में सज गए ?

हमारी नदी क्यों मर रही है ?

गोरैया क्यों नहीं चहकती मेरे आँगन में ?

इन सब अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोज रहा हूँ ,

और लिख रहा हूँ एक श्रद्दांजलि कविता

अपने पर्यावरण के मरने पर।

 

 

 

सुशील कुमार शर्मा

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