व्यक्ति के आन्तरिक पक्ष को ही अनुभूति का नाम दिया है।व्यक्ति का बाह्य पक्ष उसके किसी कार्य ;व्यवहार अथवा उसकी शारीरिक दशाओं तक सीमित होता है; और इसलिए उसे अनुभूति का हिस्सा नहीं माना जा सकता।किन्तु व्यक्ति की क्रियाशीलता व्यक्ति की प्रतिक्रियाओं, प्रयोजनों तथा उद्देश्यों से अलग नहीं की जा सकती। वह व्यक्ति की व्यवहारिक समझ और उसके अर्जित ज्ञान पर भी आश्रित होती है।'अनुभव' और 'प्रतीति' ये दोनों आन्तरिक हैं, और फिर भी व्यावहारिकता के मूल में हैं। इन दोनों का अन्तर 'ज्ञान' और 'भाव' शब्दों के माध्यम से बतलाया जा सकता है।भावात्मक पक्ष की घटनाओं को अनुभूति का पर्याय माना जा सकता है। वैयक्तिक चेतना का विभाजन सम्भव नहीं है और किसी व्यक्ति की चेतना के सभी पक्षों-यानी, ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक-को एक ही इकाई के रूप में जानने पर ही पूरी इकाई की शक्ति सुरक्षित रह पाती है। संवेग तथा भाव के बीच अन्तर उनमें पायी जाने वाली शक्ति के कम या ज्यादा होने के आधार पर किया जा सकता है । दूसरे शब्दों में, यदि संवेग की शक्ति कमजोर हो तो वह भाव का उदाहरण है; लेकिन यदि संवेग की शक्ति इतनी अधिक हो कि उसके कारण विशिष्ट शारीरिक परिवर्तन तक देखने को मिल सकते हों वह संवेग का उदाहरण होगा। भाव और संवेग-अर्थात् फीलिंग और इमोशन के बीच भेद करना उचित नहीं है, क्योंकि आत्म-चेतना के अभाव में संवेगों का अस्तित्व हो सकता है किन्तु भावों का नहीं। मनुष्य आत्म-चेतन है और उसमें विचार कर पाने की शक्ति है। बुद्घि-प्रक्रिया की सम्भावना के कारण ही विविध प्रकार के भावों का अस्तित्व संभव है, जैसे-आत्म-सम्मान का भाव, देष भक्ति का भाव, श्रद्घा अथवा समर्पण का भाव।
यह मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि वैयक्तिक चेतना के सन्दर्भ में हमारा एक दृष्टिकोण उभरता आता है जो संवेगात्मक तत्वों का उपभोग करके किसी भाव या स्थायी भाव में व्यक्त होता है। यही कारण है कि हमारे लिए 'अनुभूति-विस्तार' और 'अनुभूति की परिपक्वता' की बात कह पाना संभव है। यदि अनुभूति का अर्थ केवल संवेगों की विभिन्न दशाओं को भोग सकने की क्रिया तक सीमित होता तो अनुभूति-विस्तार की बात करना कदापि युक्ति-संगत नहीं हो सकता था। व्यक्ति व्यक्ति की चारित्रिक भिन्नता उनके बीच दृष्टिकोण की विभिन्नता उत्पन्न करती है। इसीलिए एक-सी ही आनुवांषिकता रखने वाले जुड़वा बच्चे तक एक-से ही परिवेष में पलकर भी एक-जैसे नहींं होते। चूंकि हर व्यक्ति की एक विषिष्ट अहमन्यता होती है जो उसके जीवन के सक्रिय सन्दर्भों में उसकी दृष्टि को रचती और विकसित करती है, इसलिए एक ही घटना का मूल्य अथवा अर्थ किंन्हीं दो व्यक्तियों के लिए एक-जैसा नहीं होता।वास्तव में, हमारी अनुभूति का दायरा जीवन और जगत् के सम्बन्ध में हमारे ज्ञान और विज्ञान की नित नयी उपलब्ध्यिों के अर्थ व महत्व के बारे में हमारी समझ के साथ ही बढ़ता जाता है। हमारे द्वारा वैयक्तिक जीवन के अनिवार्य सत्य के पहचान के साथ व्यक्ति व्यक्ति के बीच अन्तर के कारणों की पड़ताल, और इनके बावजूद व्यक्तियों के बीच कायम होते रिश्तों की व्यावहारिक समझ भी हमारी अनुभूति के दायरे को बड़ा करती है। और, अनुभूति के दायरे के विस्तार के साथ ही व्यक्ति की अनुभूति में परिपक्वता आती जाती है।
भाव, आत्म-चेतना तथा बुद्घि-प्रक्रिया के सन्दर्भ में संवेगात्मक तत्वों से बनी 'दृष्टि' ही अनुभूति के अर्थ के लिए आवश्यक है। 'अनुभूति' और 'अनुभव' इन दोनों के बीच अन्तर तो है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है। अनुभव के विस्तार के साथ अनुभूति का विस्तार देखा जा सकता है। पहले का सम्बन्ध ज्ञानात्मक शक्ति-प्रसार से है और दूसरे का सम्बन्ध रागात्मक वृत्ति के विकास से। ज्ञान के साथ रागात्मक वृत्ति का विकास सम्भव है। इसलिए तर्क और भावना, अथवा बुद्घि और अनुभूति, के बीच विरोध असम्भव है।अनुभूति व्यक्ति-चरित्र-सापेक्ष है एवं व्यक्ति की दृष्टि है, वह सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक शक्ति व नैतिक परम्परा से अलग नहीं की जा सकती।
सुशील कुमार शर्मा
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