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और कोई रास्ता भी नही

 

सुशील शर्मा

 

 

रामेती कुम्हारिन का भट्टा शहर के एक कोने में था।दीये भट्टे में पक रहे थे।उन धुएं की लकीरों में रामेती और उसके पति रतिराम के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रहीं थी।

 

पिछली दीवाली का दर्द और डर अभी तक मन में समाया था।पिछली दीवाली पर रतिराम ने बैंक से कर्ज लेकर खूब सारे दीये और दीवाली के अन्य सामान बनाये थे।आशा थी दीये खूब बिकेंगे खूब लक्ष्मी बरसेंगी।पति रतिराम बेटी मुनिया बेटा धन्नू और वह स्वयं दीये बेचने के लिए निकले बाजार में दुकानें लगाई ठेले पर फेरी लगाई परंतु किसी ने भी उनके दीये नहीं ख़रीदे।उनके बाजू वाली दुकान से चीनी दीये धड़ाधड़ बिक रहे थे।उनकी लागत एवं मुनाफे को मिलाकर उससे बहुत कम कीमत पर सुन्दर चीनी दीये लोगों के मन को भा रहे थे।

 

"बाजार में चीनी सामानों की बाढ़ आ रही है झालर दीये रंगबिरंगी मालाएं पिन से लेकर हवाई जहाज तक तो चीन से आकर बिक रहे हैं।"रतिराम ने ठेले से दीये उतारते हुए कहा।

 

रुआंसी मुनिया रामेती से पूछने लगी "माँ क्या अब हमारे दीये नहीं बिकेंगे,मैंने कितनी मेहनत से बनाये थे माँ,लोग हमारे दिए क्यों नहीं खरीद रहे हैं?"

 

रामेती क्या जबाब देती उसे तो खुद नहीं सूझ रहा था क़ि वह क्या करे।

 

धन्नू कहने लगा "माँ अब क्या में नहीं पढ़ पाउँगा ,पिताजी बैंक का कर्ज कैसे चुकाएंगे?हम साल भर क्या खाएंगे।

 

रामेती की आँखों में आंसू झिलमिला रहे थे।रतिराम भाव विहीन आँगन में फैले दीयों को देख रहा था।

 

अचानक मुनियाँ की आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी"माँ इस दीवाली पर मैं नए कपडे लूँगी"

 

"और मैं खूब सारे फटाके"उधर से धन्नू चिल्लाया।

 

हाँ माँ वहाँ चाइना की सेल लगी है सब चीजें सस्ती मिल रही हैं" धन्नू ने आशा भरी निगाहों से रामेती को देखा।

 

"हां बेटा चलेंगे हम चाइना सेल में सस्ती चीजें खरीदने और कोई रास्ता भी तो नहीं है।" रामेती दोनों को दिलासा देते हुए अपने भट्टे की और बढ़ गई।

 

 

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