सुशील शर्मा
एक बच्चे की जेब से झांकती रोटी
कहती है कि बचपन प्रताड़ित है।
अपने माँ बाप के अरमानों से।
बचपन प्रताड़ित है शिक्षा के सम्मानों से।
बचपन प्रताड़ित है वर्तमान व्यवस्था से।
बचपन प्रताड़ित है सामाजिक अव्यवस्था से।
बचपन रो रहा है बस्तों के बोझों से।
बचपन रो रहा है शिक्षा के समझौतों से।
बचपन वंचित है माँ बाप के प्यार से।
बचपन वंचित है परिवार के दुलार से।
मासूम बचपन स्कूलों में पिटता है।
मासूम बचपन बसों में घिसटता है।
इस बचपन पर कुछ तो रहम खाओ।
फूलने दो मुस्कुराने दो इसे न अब सताओ।
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