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Dr. Srimati Tara Singh
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भारत भाग्य विधाता

 

गणतंत्र एक ऐसी जीवन पद्धति का नाम है जिसमे व्यक्ति स्वमेव अनुशासित रह कर अपने कर्तव्यों का पालन करता है। इसमें शासन को किसी भी प्रकार के अनुशासन की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती है। इसी की महात्मा गांधी ने राम राज्य का नाम दिया था। सी. ई. ह्यूरोज के अनुसार"प्रजातंत्र का अपना संघठन व शासन होना चाहिए किन्तु व्यक्तिगत स्वतंत्रता उसका प्राण है। "व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ उच्छृंखलता एवं मनमानी नहीं होनी चाहिए। जो व्यवहार दूसरों के जीवन के लिए बाधक बने वह स्वतंत्रता नहीं बल्कि उच्छृंखलता एवं प्रतिघाती व्यवहार होता है। स्वतंत्रता का मूल अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने एवं सामाजिक आचरण को व्यवहार में लाने से है जिसमे दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का हनन न हो। महात्मा गांधी ने प्रजातंत्र की परिभाषा देते हुए कहा है कि "प्रजातंत्र ऊँचे से ऊँचे एवं नीचे से नीचे व्यक्ति को आगे बढ़ने के सामान अवसर प्रदान करता है। "

गणतंत्र वास्तवमें मानवीय मूल्यों का पोषक है। किन्तु आज गणतंत्र सिर्फ शासक एवं शोषित के बीच दम तोड़ता नजर आता है। संविधान एवं स्वतंत्रता किसी भी राष्ट्र की सर्वोत्कृष्ट धरोहरें होती हैं। अगर देश का कोई भी निवासी इन की सुरक्षा एवं अनुशरण की अवहेलना करता है तो समझना चाहिए की वह देश पतन की ओर बढ़ रहा है।भारत में आज यह खतरा बढ़ रहा है लोग विधि एवं विधान की अवज्ञा में लगे हुए हैं। वैश्विक प्रगति के नाम पर हम अपने मूलभूत आदर्शों की बलि देते जा रहे हैं। हमारे पुराने हो चुके हैं की वर्तमान सन्दर्भों में अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहें हैं। अरस्तू ने कहा है " It is better for a city to be governed by a good man than even by good laws ."अच्छे कानूनो की अपेक्षा एक अच्छे व्यक्ति द्वारा शासित होना कहीं ज्यादा अच्छा है।

शब्द की व्याख्या के अनुसार जो शासन व्यवस्था जनता की हो जनता के लिए हो एवं जनता द्वारा संचालित हो वही जनतंत्र है। 'लोक' शब्द का शाब्दिक अर्थ लोगों के लिए या इस भूमि के लिए जिसमें लोग रहते हैं के लिए प्रयुक्त होता है। यह आम जनता को विस्तारित करने वाला शब्द है किन्तु आज यह शब्द शासक वर्ग के लिए होता है। लोक सेवक यानि सरकारी व्यक्ति।

जनतंत्र के तीन प्रमुख स्तम्भ हैं स्वतंत्रता ,समानता एवं निरपेक्षता। जिस देश में ये तीनो स्तम्भ सुचारू रूप से संचालित हैं तो हम कह सकते हैं की उस देश में जनतंत्र है। भारत में इन तीनो स्तम्भों की सार्वभौमिकता आज तक स्थापित नहीं हो पाई है। स्वतंत्रता के नाम पर 1947 में हम अंग्रेजों से तो स्वतंत्र हो गए लेकिन अभी भी देश के कई हिस्सों में जंगल ,जमीन एवं जीवन के लिए संघर्ष जारी है। विदेशियों से छुटकारा पाने के वाद स्वदेशी परतंत्रता आज भी किसी न किसी रूप में देश के हर कोने में मौजूद है। दलित,महादलित ,शोषित,स्त्री प्रताड़ना,बालश्रम,बलात्कार एवं बेरोजगारी से स्वतंत्रता पाना अभी शेष है। जीवन से निराश होकर आत्महत्या करने वाले किसान ,पूर्वोत्तर की अस्थिरता ,रूपये का गिरना ,बाल मजदूरी ,आतंकवाद,नक्सलवाद ,पिछले 65 वर्षों से भारतीय जनतंत्र को खोखला करती चली आ रही है।

भारत में एक ओर आर्थिक विकास की धूम मची है। सभी कह रहे हैं की हम विश्व के सर्वश्रेष्ठ विकासशील देशों में शुमार हैं। वहीँ पांच वर्ष से कम आयु के 47%बच्चे कुपोषण की चपेट मैं हैं। देश के 1.5 %पूंजीपतियों की आय में बेतहाशा वृद्धि हो रही है जबकि 60 से 70 प्रतिशत लोग दो वक्त की रोटी के लिए झूझ रहें हैं।

असंगठित मजदूरों की स्थिति पहले से खराब हुई है। नौकरियों के ठेके पर होने के कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है। कुटीर उद्योग गायब हो रहे हैं। सिर्फ मल्टीनेशनल कंपनियाँ रोजगार हड़पने में लगी हुई है।

देश का आर्थिक विकास भले ही हो रहा हो लेकिन मानवीय विकास अभी भी पिछड़ा है। इस असमानता के कारण युवाओं में आक्रोश बढ़ रहा है इस कारण वह सरकारों को बदलने की कोशिश करता है लेकिन उसके हाथ में कुछ नहीं लगता क्योंकि सरकार कोई भी आ जाये उसके हालात एवं काम करने के तरीके वैसे ही पुराने हैं।

जनतंत्र की आधार शिला चुनाव हैं। भारत में अधिकांश चुनाव बाहुबल एवं धनबल के आधार पर जीते जाते हैं। यहाँ पर चुनाव जाति धर्म ,क्षेत्रवाद के आधार पर लड़े जाते हैं और कमोबेश सभी दल चुनाव में इन बुराइयों का अनुगमन करते हैं। इस कारण संसद एवं राज्यों की विधानसभाओं में धनबली एवं बाहुबली जनप्रतिनिधियों की भरमार है। अधिकांश राजनैतिक दलों के ढांचे ,चरित्र एवं व्यवहार एक जैसे हैं जो अलग बात करते हैं लेकिन जब सत्ता में आते हैं तो पारम्परिक व्यवहार करने लगते हैं। इन सब परिस्थितियों से जनता ऊब गई है लेकिन उसके पास कोई विकल्प नहीं है।

आज की स्थिति में भारत एक स्थिर राजनैतिक जनतंत्र के रूप में सद्भाव पूर्ण क्षेत्रीय एकता और सुसंगत धार्मिक पक्षपात विहीन मूल्यों को स्थापित करने का दावा प्रस्तुत कर रहा है। विगत साठ वर्षों से अधिक समय से यहाँ जारी संसदीय जनतंत्र के प्रयोग को लेकर आत्ममुग्धता का वातावरण है। भारतीय समाज की विभिन्न गैर बराबरियों ,जाति ,लिंगभेद पर आधारित तमाम सोपानक्रमों की आलोचनाओं से गुजरता राष्ट्र तमाम दावों और वास्तविकताओं के बीच झूलता जनतंत्र शासकों के आचरणों पर आश्रित है।

 

 

 

सुशील कुमार शर्मा

 

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