सुशील कुमार शर्मा
संस्कृति जीवन की विधि है।संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में
हमारी अन्तःस्थ प्रकृति की अभिव्यक्त है।सभ्यता और संस्कृति को समानार्थी
समझ लिया जाता है, जबकि ये दोनों अवधारणाएँ अलग-अलग हैं।संसार के सभी
विद्वानों ने ‘संस्कृति’ शब्द की विभिन्न परिभाषायें, व्याख्यायें की
हैं। कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं मिल पाती फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है
कि “संस्कृति” उन भूषण रूपी सम्यक् चेष्टाओं का नाम है जिनके द्वारा मानव
समूह अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन को, अपनी शारीरिक मानसिक शक्तियों को
संस्कारवान, विकसित और दृढ़ बनाता है। संक्षेप में संस्कृति मानव समुदाय
के जीवन यापन की वह परम्परागत किंतु निरन्तर विकासोन्मुखी शैली है जिसका
प्रशिक्षण पाकर मनुष्य संस्कारित सुघड़ प्रौढ़ और विकसित बनता है।
संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से
तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति)
और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)। संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी
हुई स्थिति।किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका
अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। संस्कृति के दो
पक्ष होते हैं-
(1) आधिभौतिक संस्कृति,
(2) भौतिक संस्कृति।
सामान्य अर्थ में आधिभौतिक संस्कृति को संस्कृति और भौतिक संस्कृति को
सभ्यता के नाम से अभिहित किया जाता है। संस्कृति के ये दोनों पक्ष एक
दूसरे से भिन्न होते है। संस्कृति आभ्यंतर है, इसमें परंपरागत चिंतन,
कलात्मक अनुभूति, विस्तृत ज्ञान एवं धार्मिक आस्था का समावेश होता है।
विभिन्न ऐतिहासिक परंपराओं से गुजरकर और विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों
में रहकर संसार के भिन्न-भिन्न समुदायों ने उस महान् मानवीय संस्कृति के
भिन्न-भिन्न पक्षों से साक्षात् किया है । नाना प्रकार की धार्मिक
साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवाभक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर
से मनुष्य उस महान् सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमश: प्राप्त
करता है, जिसे हम ‘संस्कृति’ शब्द द्वारा व्यापक करते हैं ।
सभ्यता से किसी संस्कृति की बाहरी चरम अवस्था का बोध होता है। संस्कृति
विस्तार है तो सभ्यता कठोर स्थिरता। सभ्यता में भौतिक पक्ष प्रधान है,
जबकि संस्कृति में वैचारिक पक्ष प्रबल होता है। यदि सभ्यता शरीर है तो
संस्कृति उसकी आत्मा। सभ्यता बताती है कि, ‘हमारे पास क्या है’, और
संस्कृति यह बताती है कि, ‘हम क्या हैं’।एक संस्कृति तब ही सभ्यता बनती
है, जबकि उसके पास एक लिखित भाषा, दर्शन, विशेषीकरणयुक्त श्रम विभाजन, एक
जटिल विधि और राजनीतिक प्रणाली हो।’
गिलिन व गिलिन के अनुसार, ‘सभ्यता संस्कृति का अधिक जटिल तथा विकसित रूप
है।’संस्कृति और सभ्यता में घनिष्ठ संबंध है । जिस जाति की संस्कृति उच्च
होती है, वह ‘सभ्य’ कहलाती है और मनुष्य ‘सुसंस्कृत’ कहलाते हैं । जो
संस्कृत है, वह सभ्य है; जो सभ्य है, वही सुसंस्कृत है । अगर इस पर विचार
करें तो सूक्ष्म सा अंतर दृष्टिगोचर होता है ।संस्कृति और धर्म में बहुत
अंतर है । धर्म व्यक्तिगत होता है । धर्म आत्मा-परमात्मा के संबंध की
वस्तु है । संस्कृति समाज की वस्तु होने के कारण आपस में व्यवहार की
वस्तु है । संस्कृति धर्म से प्रेरणा लेती है और उसे प्रभावित करती है ।
धर्म को यदि ‘सरोवर’ तथा संस्कृति को ‘कमल’ की उपमा दें तो यह गलत न होगा
।
संस्कृति ही किसी राष्ट्र या समाज की अमूल्य सम्पत्ति होती है। युग
युगान्तर के अनवरत अध्यवसाय, प्रयोग, अनुभवों का खजाना है
संस्कृति।भारतीयसंस्कृति व्यक्ति-समाज-राष्ट्र के जीवन का सिंचन कर उसे
पल्लवित पुष्पित फलयुक्त बनाने वाली अमृत स्रोतस्विनी चिरप्रवाहिता सरिता
है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह
माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की
संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। कई भारतीय विद्वान तो भारतीय
संस्कृति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं।
भारतीय संस्कृति की विशेषताएं :-भारतीय संस्कृति जीवन-दर्शन, व्यक्तिगत
और सामुदायिक विशेषताओं, भूगोल, ज्ञान-विज्ञान के विकास क्रम विभिन्न
समाज, जातियों के कारण बहुत विशिष्ट है। यह भिन्नता विभिन्नता सहज और
स्वाभाविक है। हमारी भारतीय संस्कृति सार्वभौमिक सत्यों पर खड़ी है। और
इसी कारण वह सब ओर गतिशील होती है। कोई भी संस्कृति संस्कृति की अमरता इस
बात पर भी निर्भर करती है कि वह कितनी विकासोन्मुखी है।जिस संस्कृति में
युग की माँग के अनुसार विकसित और रूपांतरित होने की क्षमता नहीं होती वह
पिछड़ जाती है। भारतीय संस्कृति आत्मा को ही मुख्य मानती है । शरीर और
मन की शुद्धि भी आवश्यक है । जब तक मनुष्य का बाह्य तथा अंतर शुद्ध नहीं
होता तब तक वह त्रुटिपूर्ण विचारों को भी सही मानता रहेगा ।भारतीय
संस्कृति का विकास धर्म का आधार लेकर हुआ है इसीलिए उसमें दृढ़ता है ।
भारतीय संस्कृति व्यक्ति को व्यक्तित्व देती है और उसे महान् कार्यों के
लिए प्रोत्साहित करती है, किंतु व्यक्तित्व का चरम विकास यह सामाजिक स्तर
पर ही स्वीकार करती है ।भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं
समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के
साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने
परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा
समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने
अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है।
भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 1. आध्यात्मिकता
एवं भौतिकता का समन्वय 2. अनेकता में एकता 3. ग्रहणशीलता 4. प्राचीनता 5.
निरन्तरता 6. लचीलापन एवं सहिष्णुता 7. वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना 8.
लोकहित और विश्व-कल्याण 9. पर्यावरण संरक्षण
भारतीय संस्कृति का संरक्षण कैसे किया जाय :-भारत संभवत: विश्व का इकलौता
देश होगा जहां अपनी कला संस्कृति को बचाने, संजोने और सहेजने को लेकर एक
तरह का उपेक्षा का भाव दिखाई देता है।भारतीय संस्कृति को और भी उन्नत
बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे जो दोष संस्कृति में घर करते गए हम
उन्हें दूर करने का प्रयास करें तभी सच्चे रूप में उन्नति संभव हो सकती
है । आज का युग विज्ञान का युग है । हमें नवीन वैज्ञानिक प्रयोगों से लाभ
उठाकर देश की उन्नति करनी है । मिथ्या आडंबर और अंधविश्वासों का युग अब
बीत चुका है । यह जागरण का युग है, जिसमें हमें बड़ी सतर्कता से आगे बढ़ना
है। संस्कृति ही किसी देश, समाज या जाति का प्राण है। वहीं से इन्हें
जीवन मिलता है। किसी भी देश की सामाजिक प्रथायें, व्यवहार, आचार-विचार,
पर्व, त्यौहार, सामुदायिक जीवन का सम्पूर्ण ढाँचा ही संस्कृति की नींव पर
खड़ा रहता है। यह संस्कृति की अजस्र धारा जिस दिन टूट जाती है, उसी दिन
से उस समाज का बाह्य ढाँचा भी बदल जाता है। संस्कृति के नष्ट होते ही
किसी सभ्यता का भवन ही लड़खड़ा कर गिर जाता है।सभ्यता और संस्कृति के
विकास का यह असंतुलन सामाजिक विघटन को जन्म देता है। अत: इस प्रकार
प्रादुर्भूत संस्कृति विलबंना द्वारा समाज में उत्पन्न असंतुलन और
अव्यवस्था के निराकरण हेतु आधिभौतिक संस्कृति में प्रयत्नपूर्वक सुधार
आवश्यक हो जाता है। विश्लेषण, परीक्षण एवं मूल्यांकन द्वारा सभ्यता और
संस्कृति का नियमन मानव के भौतिक और आध्यात्मिक अभ्युत्थान के अनुपम
सहयोग प्रदान करता है।हमारी संस्कृति के संरक्षण के लिए निम्न बातें हमें
अपने आचरण में लानी होंगी
1.अपनी धार्मिक परंपराओं के बारे में जानें।2. अपनी पुश्तेनी भाषा को
बचाना होगा। 3.परम्परागत व्यंजनों की विधि अगली पीढ़ी को सौपना होगा। 4.
संस्कृति की कला और तकनीकी को दूसरों से शेयर करना होगा। 5. समुदाय एवम
समाज के अन्य सदस्यों के साथ समय बिताना 6. सामाजिक एवम राष्ट्रीय महत्व
के उत्सवों का प्रबंधन और सहभागिता करना। 7. संस्कृति पर गौरव करना और
उसे अपने आचरण में उतारना।
कर्म क्षेत्र का आधार बनाकर चलने वाली संस्कृति सदा-सदा जीवित रहती है और
अधिक सामर्थ्यवान होती है। वह व्यक्ति-समाज के मूल को ही प्रेरणा देकर
सम्पूर्ण बाह्य ढाँचा बदल देती है।भारतीय संस्कृति को सच्चे अर्थ में
मानव-संस्कृति कहा जा सकता है। मानवता के सिद्धान्तों पर स्थित होने के
कारण ही तमाम आघातों के बावजूद भी यह संस्कृति अपने अस्तित्व को सुरक्षित
रख सकी है। आज हमें भारतीय संस्कृति के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए
अपने समस्त सांप्रदायिक वैमनस्यों को भुलाकर सहिष्णु बनाना होगा । भारतीय
संस्कृति की उदार प्रवृत्ति ही हमारी संस्कृति के भविष्य को समुज्वल बना
सकती है ।
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