Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दोहे बन गए दीप

 

सुशील शर्मा

 

 

विडाल (विन्यास ---3 गुरु 42 लघु )

 

जलत बुझत लहरत अचल ,दीप जलत मनमीत।
थिरक थिरक गदगद सजल ,मन मन मिलत सप्रीत।

 

 

नयन भरत उमगत मगन,सुखमय मन चित चोर।
लिपटत सिमटत झपट कर सजग सहज पिय ओर।

 

करभ (विन्यास - 16 गुरु 16 लघु )

 

ज्योतिर्मय आकाश है उजियारे की भोर।
अँधकार मन का मिटा ,दीप जलें चहुँ ओर।

 

मन अनंग सा मचलता ,पिया मिलन की आस।
दीवाली सी झूमती ,बाँहों में आकाश।

 

धनतेरस में लाइए ,सोना चांदी खास।
धन्वन्तरि को पूजिये ,घर सदा लक्ष्मी वास।

 

माटी का दीपक जले ,देहरी छत मुड़ेर।
सजी दिवाली प्रेम की ,पिय न लगाओ देर।

 

पयोधर (विंन्यास --12 गुरु 24 लघु )

 

माटी के इस दीप में जन जन का उत्कर्ष।
कटे तिमिर की रात सब नूतन नवल विमर्श।

 

माटी दिया जलाय कर ,तमस हरो सब आज।
ज्योतिर्मय मन को करो पूरण हों सब काज।

 

कमल अमर संग उर्मिला ,दीप त्रिवेणी साध।
उत्साहित सब को करें ,विनय सुधीर अबाध।

 

वानर पान (विंन्यास --10 गुरु 28 लघु )

 

ज्योति सदा मन में जले ,अंतर करत प्रकाश।
तिमिर हरे सुखमय करे ,जीवन भर दे आस।

 

स्वान ( विन्यास --2 गुरु 44 लघु )
नटखट मन हुलसत फिरत ,चहक चहक छवि रूप।
मचलत विलखत नयन तन ,धरि धरि अगम सरूप।

व्याल (विन्यास --4 गुरु 40 लघु )


जलत जलत मन बुझत है ,गिरत गिरत उठ जात।
सहत सहत तन तनत है,सजल सजल पुनि गात।

 

मच्छ (विन्यास --7 गुरु 34 लघु )


जल जल कर दीपक कहत ,मत कर रे अभिमान।
तिल तिल कर मिट जात है ,तन मन धूलि समान।

 

 

 

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