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एक अदने की बात

 

सुशील कुमार शर्मा

 

 

 

हे महान साहित्य सम्राटो ।

मत रोंदों अपने अहंकार के तले।

नन्हे पौधों की कोपलों को।

तुम्हारे ताज में अकादमी ,पद्मश्री,नोबल सजे हैं।

सम्मानों से लदा है तुम्हारा अहंकार।

साहित्य तुम से शुरू होकर तुम पर ही ख़त्म हो रहा है।

तुम्हारी सैकड़ों पुरुस्कृत किताबों के नीचे।

मेरे दबे शब्द निकलने की कोशिश करते हैं।

लेकिन तुम्हारी बरगद सी शाखाएं।

फुंफकार कर सहमा देती हैं मेरे अस्तित्व को।

एक फुनगे की तरह निकलने की मेरी कोशिश को।

कुचल देती है तुम्हारी हाथी पदचाप।

तुम नहीं सुनना चाहते एक छोटे फूल की बात।

क्योंकि तुम्हारे अहंकार के बगीचे में।

फैली नागफनी लहूलुहान कर देती हैं स्वयं तुम्हे भी।

अपने कृतित्व के पिंजरे में कैद ,वंचित हो तुम।

बाहर खुली फ़िज़ाओं की भीनी खुश्बुओं से।

पथ प्रदर्शन करने वाला तुम्हारा व्यक्तित्व।

आज पहाड़ की तरह खड़ा है रास्ते में।

 


(यह भाव किसी के लिए व्यक्तिगत नहीं है वर्तमान व्यवस्थाओं पर एक व्यंग है। )

 

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