मुझे नहीं मालूम मेरा नामकरण किसने किया किन्तु मेरे गुणों के आधार पर ही यह नामकरण किया गया है ये निश्चित है। मेरा स्वच्छ निर्मल जल पीने में ""शक्कर """से काम शीतलता नहीं देता। इस पूरे क्षेत्र की प्रमुख उपज गन्ना है। इस फसल का मुझ से कोई न कोई नाता अवश्य है।
सतपुड़ा के घने एवं गहरे जंगलो के बीच छिंदवाड़ा जिले के सीता पहाड़ से मेरा जन्म हुआ। किवदंती है की वाराह भगवन ने हिरण्याक्ष दैत्य के बध के पश्चात पश्चाताप के लिए अपने अग्र दांतों को पृथ्वी में गाड़ कर मुझे उत्पन्न किया एवं मुझ में स्नान के पश्चात दोषमुक्त हुए तब से लोग मुझे वाराही गंगा के रूप में भी जानते हैं।
मेरा प्रवाह भी मेरी माँ नर्मदा की तरह पूर्व से पश्चिम की ओर है । उछलती कूदती जंगलों को पार करती हुए एक छोटी बच्ची सी चंचल अपने प्यारे पिता सतपुड़ा के कन्धों पर फुदकती हुए आगे दौड़ती गई। यही बीच में मेरी सहेली हरदू गले मिल गई। हम लोग दोनों सहेलिया अठखेलियां करती हुए आगे बढ़ी फिर प्यारे पिता से विदा ले कर मैं समतल पर आई तो मेरा प्रवाह सम हो गया,एक नवयौवना की तरह इठलाती हुई में अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली मेरे किनारे पर बसे गांवों खढ़ई धमेटा शाहपुर कल्याणपुर ,रायपुर आदि को अपने स्नेह से सींचती हुई गाडरवारा के नजदीक केंकरा गाँव पहुंची। यंहा पर मेरी प्यारी बहिन सीतारेवा ने मुझे आकंठ कर लिया।,अपनी प्यारी बहिन से मिल कर में गदगद हो गई।
इस के बाद मेरा सबसे सुन्दर घाट "रामघाट "है। यंहा मेरी आत्मा बसती हैं आज भी में अपनी सम्पूर्ण नीली आभा के साथ यंहा पर रहती हूँ। यंहा पर आचार्य रजनीश का बचपन खेला है। तुम्हारे लिए ओशो भगवान होंगे मेरेलिए तो वो मेरा प्यारा पुत्र था जो मेरी गोद में घंटों खेलता रहता था। वस्तुतः रजनीश का ओशो या भगवान या आचार्य बनने का प्रथम चरण मेरी गोद से ही प्रारम्भ हुआ था। वह सत्य का सत्यार्थी हमेशा तथ्य एवं अनुभव की बात करता था। सत्य विश्वास नहीं अनुभव है ,विश्वास झूठा ,एवं अँधा हो सकता है लेकिन अनुभव सच्चाई की कसौटी पर कसा हुआ खरा सोना है जो कभी गलत नहीं हो सकता।
छिड़ाव घांट मेरा सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्सव का केंद्र हैं। इस शहर की सांप्रदायिक सौहाद्रता प्रतीक है। इस शहर के समस्त नागरिकों से मेरे मिलने का स्थल है। गणेश प्रतिमायों से लेकर दुर्गा प्रतिमाओं एवं जवारे एवं तीजा से लेकर ताज़ियों का विसर्जन इसी घांट पर किया जाता हैं।
गाडरवारा शहर के इतिहास की मैं सम्पूर्ण साक्षी हूँ। एक छोटा सा गाँव गड़रियाखेड़ा किस तरह से गाडरवारा शहर में परिवर्तित हो गया ये शायद मेरे आशीर्वाद का ही प्रतिफल है। गाडरवारा शहर के विकास के सारे सूत्र मेरे पास हैं। मुझे अपने प्राणो से ज्यादा प्यारे इस शहर पर नाज हैं। भले ही इस शहर ने मेरी कभी परवाह नहीं की हो। आज मेरा अस्तित्व खतरे में है। अपने प्रिय शहर के पास मैं अपनी अस्तित्व की लड़ाई अकेले लड़ रही हूँ। मेरी एक एक साँस को मुझ से छीना जा रहा है खनन माफियाओं द्वारा बड़े पैमाने पर मेरे शरीर को क्षत विक्षत किया जा रहा है। लेकिन ये शहर मौन है। बहुत अधिक रेत की खुदाई होने से मेरे अंदर पानी के भण्डारण की क्षमता धीरे धीरे खत्म होती जा रही है। 25 साल पहले जंहा मैं पानी से लबालब भरी रहती थी आज मुश्किल से दो चार महीने ही मुझ में प्रवाह रहता है। आज सुख कर मैं काँटा हो गई हूँ। भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार इसी क्रम से मेरा दोहन होता रहा तो मेरी मौत सुनिश्चित है।
एक समय था जब वेदकाल के ऋषि एवं मुनियों द्वारा पर्यावरण के भू संतुलन के सूत्रों को ध्यान में रखते हुए नदियों को पर्यावरण संतुलन का मुख्य आधार माना था। उन्हें देवी का दर्जा देकर पूजा जाता था यथा संभव शुद्ध रखा जाता था। समाज में नदियों के प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है लेकिन औद्योगकीकरण से प्रकृति के इस तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा और यही से श्रद्धा भावना का लोप हो गया एवं उपभोग की लालसा बढ़ गई।
प्राकृतिक संसाधनो के दोहन का सबसे ज्यादा खामियाजा नदियों को ही भुगतना पड़ रहा है। और सर्वाधिक पूज्य नदियाँ खनन माफियाओं के लोभ का शिकार बन कर सिसक रही हैं।
इस क्षेत्र में मेरे अलावा मेरी बहन दूधी एवं मेरी माँ नर्मदा सबसे ज्यादा खनन माफियाओं का शिकार हुईं हैं। प्रत्येक घाट प्रत्येक गाँव में मेरे किनारों से मुझे नोचा जा रहा है पानी के बाद जो ऊपरी सतह होती है वही मेरा जीवन आधार है। उसी के सहारे मैं अपनी ऑक्सीजन यानि पानी का पर्याप्त भंडारण करती हूँ जिससे मेरी ऊपरी सतह पर साल भर पानी बना रहता हैं लेकिन उस के रेत में निकल जाने के बाद मेरा सारा पानी नीचे जमीन में चला जाता हैं एवं मैं सुख जाती हूँ। मेरा यही स्वर्ण भंडार मेरे पुत्र खोद कर मुझे मरने पर मजबूर कर रहे हैं। मेरा प्रवाह मर रहा है। मैं करवट बदल बदल कर सिसकियाँ ले रही हूँ लेकिन इस शहर को मेरी आहें मेरी टूटती सांसे सुनाई नही दे रही हैं।
शहर के विस्तारीकरण का कहर मुझ पर टूट रहा है। हर जगह मेरे किनारों के करीब कालोनियों का निर्माण हो रहा है मुझ में सैंकड़ो टन कचरा फेंका जा रहा है। शहर के सब गंदे नाले मुझ में आकर मिल रहें हैं। मंदिरों के फूल पूरे शहर के घरों में होने वाली पूजाओं के फूल एवं पूजन सामग्री का कचरा मुझ में डाला जा रहा है।
ऐसा नहीं है की इस शहर में सभी ने मुझ से मुँह मोड़ लिया हो ,कुछ मेरे साहसी पुत्रों ने बोरी बंधान बांध कर मुझे ऑक्सीजन देने की कोशिश की थी लेकिन ये प्रयास ऊंट के मुँह में जीरा साबित हुआ।
आज गाडरवारा विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर है कुछ सैकड़ों की आबादी लाखों पर पहुचने वाली है। एन टी पी सी। कोल माइंस,सोया फैक्टरी ,पावर प्लांट एवं अनगिनित कम्पनियाँ विकास के सपने दिखाने आ रही हैं। मुझे भी विकास अच्छा लग रह है मेरे शहर के नौजवानों को रोजगार मिलेगा लेकिन क्या सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक चिन्हों को मिटा कर विकास की परिभाषा लिखी जानी चाहिए ?क्या मुझे बचने के लिए कोई सरकार कोई जन प्रतिनिधि… कोई संग़ठन ,कोई नागरिक आगे नहीं आयेगा ?अगर उत्तर "नहीं "है तो इस शहर का दुर्भाग्य होगा ! अगर उत्तर "हाँ "तो विकास मैं मेरी भी सहभागिता होगी, मेरे संस्कार होंगे, मेरा तन मन धन होगा।
आगे पुराणो में वर्णित शुक्लपुर (सोकलपुर )में मेरी माँ मेरा इंतजार कर रही है। मैं कितने ही कष्ट में रहूँ ,जब भी मेरी माँ नर्मदा का स्मरण होता है मैं प्रफ्फुलित होकर उनसे मिलने को उतावली होकर चलने लगती हूँ। जब मेरा प्रवाह यौवन पर होता है तो माँ नर्मदा उसे दिशा देती हैं और जब में कष्ट में होती हूँ सूखे प्रवाह के समय माँ मुझे बल देतीं हैं और आत्मीयता से गले लगा लेती हैं। क्योंकि वो जानती हैं।
दुख नहीं रहते सदा ,सुख भी सूख जाते हैं।
प्रेम के तरल प्रवाह में सागर भी डूब जाते हैं
???? सुशील कुमार शर्मा
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