मध्यप्रदेश का गाडरवारा शहर या यूँ कहें कि क़स्बा की पहचान के दो बहुत महत्वपूर्ण चिन्ह हैं पहला आचार्य रजनीश या ओशो जिनका बचपन इस शहर में बीता दूसरा चिन्ह हैं यंहा की तुवर (राहर) की दाल जो की भारत में ही नहीं विश्व में विख्यात है। लेकिन इन दोनों से इतर इस शहर का एक और सांस्कृतिक विरासत का चिन्ह है यंहा का सार्वजानिक पुस्तकालय "श्री सार्वजनिक पुस्तकालय "के नाम से प्रसिद्द इस पुस्तकालय का इतिहास करीब 100 वर्ष पुराना है।
1910 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के आवाहन "घर घर गणेश शहर शहर पुस्तकालय से प्रेरित होकर गाडरवारा के एक नवजवान स्व. श्री लक्ष्मीनारायण खजांची ने अपने 6 साथियों के साथ 1914 में 25 किताबें एक बक्से में रख कर इस पुस्तकालय की नीव रखी थी 1936 में सरकारी जमीन पर भवन की नींव डाली गई 1956 में रजिस्ट्रेशन होने तक यह पुस्तकालय अपने पूरे योवन पर पहुँच गया था। आज इस पुस्तकालय में करीब 20 हजार पुस्तकें संगृहीत हैं।
60 से 90 के दशक के समय लोगों में पढ़ने का जूनून था ,स्व अध्ययन से लगाव था वह पीढ़ी जानती थी की पुस्तकालय ज्ञान का वो अद्भुत मंदिर हैं जँहा हम बुद्धि का विकास करते हैं ,गुरु सिर्फ पथ प्रदर्शन करता हैं किन्तु ज्ञान का विकास सिर्फ पुस्तकालय से ही संभव है। अगर रजनीश को ओशो बनाने में इस पुस्तकालय का बहुत बड़ा योगदान हैं तो शायद आप इसे अतिश्योक्ति कहेंगे लेकिन सच यही है। रजनीश प्रतिदिन इस पुस्तकालय से तीन पुस्तके जारी करवा कर ले जाते थे एवं रात भर में तीनो पुस्तकों को पढ़ कर दूसरे दिन वापिस कर जाते थे। आज भी उनकी हस्ताक्षरित पुस्तकें पुस्तकालय में संरक्षित हैं जिन्हे विदेशी बड़ी श्रद्धा से सर माथे लगाते हैं।
समय के साथ पीढ़ियों में बदलाव आया कम्प्यूटर एवं इंटरनेट क्रांति के इस युग में पुस्तकालय संघर्ष करते हुए नजर आने लगे आज की युवा पीढ़ी पुस्तकालय से हट कर इ-लाइब्रेरी का रुख करने लगी ,इ-बुक्स के इस ज़माने में पाठकों की संख्या कम होने लगी लेकिन श्री सार्वजनिक पुस्तकालय ने अपनी पहचान नहीं खोयी आज इस पुस्तकालय में करीब 20000 पुस्तकें जिनमे धर्म, दर्शन, उपन्यास, कहानी, साहित्य, उर्दू, अंग्रेजी, विज्ञानं तकनीकी, सामान्य ज्ञान, पत्रिकाएँ, समाचार पत्र, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी सभी प्रकार से सुसज्जित ये पुस्तकालय शान के साथ गाडरवारा की धरोहर के रूप में विद्यमान हैं।
उस साठोत्तर पीढ़ी के लोग पुस्तकालय के लिए कितने समर्पित थे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक कॉलेज के सेवानिवृत प्राचार्य स्व. श्री कुञ्ज बिहारी पाठक ने इस पुस्तकालय में निःशुल्क दो वर्ष तक ग्रंथपाल का कार्य किया था। ये ज्ञान के प्रति लगाव एवं पढ़ने की ललक आज की पीढ़ी में दुर्लभ है।
हम सभी की बाल्य स्मृतियों में ये पुस्तकालय हमेशा मुस्कुराता रहेगा पुस्तकों के अभाव में इस पुस्तकालय ने हम सभी को जो ज्ञान दिया वो अविस्मरणीय है। शाम 6 बजे से रात 8 बजे तक यह पुस्तकालय बुद्धिजीवियों का मिलन स्थल होता था। पठन पाठन के अलावा राजनितिक धार्मिक एवं वर्तमान परस्थितियों पर चर्च का केंद्र होता था खचाखच भरा वाचनालय अवं पूर्ण शांत माहोल लगता था किसी ध्यान केंद्र में बैठे हों।
व्यवस्थापक बदल गए पीढियां बदल गईं लेकिन आज भी ये पुस्तकालय अपनी पुरानी दिनचर्या पर चल रहा हैं। नई सोच के व्यवस्थापकों ने इ-लाइब्रेरी की भी व्यवस्था बना दी है।
इतिहास के पृष्ठ पलटने एवं जनक्रांति की गहराई में जाने पर पता चलता है की शास्त्र के अभ्युथान की आकांक्षा पुस्तकालयों से ही पूरी होती है। इसके लिए हम सरकार पर निर्भर नहीं रह सकते ये उत्तरदायित्व सभी बुद्धिजीवियों का हे जिसे उन्हें पूरा करना ही होगा। इस उत्तरदायित्व का निर्वहन श्री सार्वजनिक पुस्तकालय बड़े सम्मान के साथ कर रहा है। यह गाडरवारा का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्रदेश का एक गौरव स्मारक है जो पिछले 100 वर्षों से अनवरत ज्ञान के अविरल स्त्रोत के रूप में देश सेवा में तत्पर है।
सुशील शर्मा (वरिष्ठ अध्यापक)
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