जब भी शहर के आलीशान
एयर कंडीशनर मकान में,
लेटा होता हूँ अकेला तन्हा।
तब माँ का वो चादर गीला कर
गांव की तपती दुपहरिया में,
स्नेहमयी शीतलन देना बहुत याद आता है।
इस शहर के ऊंघते बियावान में
ममता के शब्दकोश लिए माँ की
वो स्नेहमयी परछाईं झूलती है।
मकान की दीवारों पर।
समय का पंछी उड़ता गया
सालों के कैलेंडर दीवार से
उतरते गए पीले पत्तों से।
यादों के कोनों में माँ का चेहरा
सिमटता गया पानी सा।
माँ एक सुंदर कढ़ा सा कपड़ा थी ।
गोटेदार जिसे पूरा परिवार
पहने था अलग अलग रिश्तों में
मैं भी लिपटता था उससे
उसकी गोदी में चढ़ कर
उसके सीने से चिपक कर उसके आँचल को
पकड़ कर झूलता था उसकी बाहों में।
आज माँ एक उदास सा लिहाफ
जो बिछा है पलंग पर निर्विकार
मैं सोना चाहता हूं उस
लिहाफ को ओढ़ कर उसके साथ
खेलना चाहता हूं पहले की तरह
लेकिन अब सब बुझता सा लगता है ठहरा सा
समय ने बंद कर दिए सब खेल
अब माँ ओझल सी कुछ बोझिल सी
गांव के पलंग पर अशक्त सी।
खाने की मेज पर उसके
हाथ की चनों की बनी चूल्हे की रोटी
आंसुओं में झिलमिलाती है।
गांव का वह खेत जहां उसके
कंधे पर बैठ कर घूमता था।
स्मृति शेष महकती यादों में
माँ आज भी यादों में पिघलती है।
किसी बर्फ की तरह और मुझे
थपथपा कर निकाल जाती है।
उसका आँचल पकड़ने की
बहुत कोशिश करता हूँ।
लेकिन वो उड़ जाता है किसी
कटी पतंग की तरह।
माँ की निगाहें आज भी इंतजार
करती हैं मेरा पथराई सी।
सबसे बचकर उस सड़क
की ओर जो जाती है शहर को।
उस शहर को जहां मैं मरता हूँ
हररोज जिंदा रहने की कोशिश में।
सुशील कुमार शर्मा
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