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कृष्ण की पीड़ा

 

सुशील कुमार शर्मा

 

(लघु काव्य नाटिका )

 

बात उस समय की है जब महाभारत के पश्चात कृष्ण द्वारिका लौटे थे। बहुत उदास रहने लगे रुक्मणी ,सत्यभामा आदि सभी रानियों ने उनकी उदासी का कारन पूछा लेकिन कृष्ण नहीं बोले। रुक्मणी जी समझ गईं की कृष्ण के मन में अनंत वेदना है और उस वेदना का एक मात्र उपाय राधाजी हैं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कृष्ण से पूछा क्यों न राधा को कुछ दिन मेहमानी के लिए यंहा बुला लिया जाए। कृष्ण रुक्मणी की और कृतज्ञता से मुड़े और हलकी सी मुस्कराहट में अपनी स्वीकृति देते हुए वह से चले गए। रुक्मणी जी के आमंत्रण पर राधाजी द्वारका आईं यह संवाद उसी समय का है।

 

 

 

राधा का प्रश्न

 

 

कितने वर्षों बाद द्वारकाधीश आज ये घडी आयी।

सुख स्वर्ग भरे महलों में कैसे तुम को राधा याद आयी ?

 

कृष्ण की मनुहार

 

 

मत कहो द्वारकाधीश मैं तो तुम्हारा कान्हा हूँ।

क्यों समझ रही हो मुझे पराया मैं तो जाना माना हूँ।

 

जब से बिछुड़ा तुम सब से हे राधे मुझे विश्रांति नहीं।

हर दम दौड़ा भागा हूँ राधे मुझे किंचित शांति नहीं।

 

 

राधा के उल्हाने

 

 

क्यों होगी शांति तुम्हे कान्हा जब से तुम द्वारकाधीश बने।

गोकुल वृन्दावन को विसरा राजनीति के आधीश बने।

 

वंशी भूले ,यमुना भूले ,भूले गोकुल के ग्वालों को।

प्रेम पगी राधा भूले भूले ब्रज के मतवालो को।

 

अब बहुत दूर जाकर बोलो कान्हा कैसे लौटोगे।

जो दर्द दिया ब्रज वनिताओं को बोलो कैसे मेटोगे।

 

एक समय था उठा गोवर्धन ब्रजमंडल की तुमने रक्षा की थी।

एक समय था अर्जुन को गीता में लड़ने की शिक्षा दी थी।

 

एक समय था ब्रज मंडल में तुम सबके प्यारे प्यारे थे।

एक समय था जब हम सब तुम पर वारे वारे थे।

 

कैसे कृष्ण महाभारत का कोई हिस्सा हो सकता है ?

कैसे कृष्ण प्रेम के बदले युद्ध ज्ञान को दे सकता है ?



प्रेम शून्य होकर अब क्यों तुम प्रेम जगाने आये हो।

भूल चुके तुम जिन गलियों को क्यों अपनाने आये हो।

मैं तो प्रेम पगी जोगन सी सदा तुम्हारे साथ प्रिये।

तुम विसराओ या रूठ के जाओ मैं बोलूंगी सत्य प्रिये।

 

 

कृष्ण का दर्द

 

 

सत्य कहा प्रिय राधे तुमने मैंने जीवन मूल्यों को त्यागा है।

लेकिन न किंचित सुख में रहा ये कान्हा तुम्हारा अभागा है।

 

विषम परिस्थितियों ने मुझ कान्हा को कूटनीति है सिखलाई।

पर तुम्हारे इस प्रिय अबोध को राजनीति कभी नहीं भाईं।

 

लेकिन न किंचित सुख पाया इन भव्य स्वर्ग से महलों में।

बिसर न पाया वह सुख जो मिला था गोकुल की गलियों में।

 

भूला नहीं आज तक हूँ मैं वह आनंदित रास प्रिये।

जीवन की आपा धापी में वे यादें सुगन्धित पास प्रिये।

 

नन्द यशोदा और ब्रज वालों का ऋण कैसे चुका पाऊंगा ?

कौन सा मुख लेकर उनके सम्मुख मैं जा पाउँगा ?

 

कई बार छोड़ कर राजपाट आने का मन करता है।

लेकिन कर्तव्यों के पालन में सौ बार ये मन मरता है।

 

मेरी विषम विवशताओं का आज आंकलन तुम करो प्रिये।

अपराध बोध से ग्रसित इस ह्रदय दंश को तुम हरो प्रिये।

 

 

 

राधा का प्रेम लेपन

 

कान्हा से तुम कृष्ण बने फिर तुम बने द्वारकाधीश।

भक्तों के तुम भगवन प्यारे मेरे हो आधीश।

 

इस अपराध बोध से निकलो तुम सबके प्रिय हो बनवारी।

भक्तों के तुम तारण कर्ता राधा तुम पर वारि वारि।

 

सौ जन्मों के वियोग को सह लूंगी कान्हा प्यारे।

एक पल तेरा संग मिले जो मेरे हों बारे न्यारे।

 

 

 

 

सुशील कुमार शर्मा

 

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