सुशील शर्मा
कुछ तो है अंदर
जो तुमसे जुड़ा है।
कुछ तो है मुझ में
जो तुम्हारे साथ खड़ा है।
नदी के दो किनारों की तरह
समांतर चलते हुए भी।
जो चाहकर भी नही मिल सकते
तुम अंतर में उतरती हो
किसी झरने सी लहराती
और मैं छू लेता हूँ
तुम्हारे मन की अनंत गहराइयों को।
मेरे दर्द में तुम चिहुंक उठती हो
और तुम्हारा दर्द मुझे
चीर देता है किसी तरबूज की तरह।
तुम्हारी खुशी मुझे स्पंदित
कर आसमान में उड़ाती है।
मेरी खुशी में तुम कुलांचे
मारती हो हिरणी की तरह।
नदी के किनारे अकेली बैठी
तुम करती हो मेरा इंतजार।
आंख उठा कर गर तुम देख लेती दूसरी तरफ।
मेरी आँखों मे तुम थी एकटक।
इस जन्म में हम रिश्तों में तो नही बंधे।
तुम्हारा तन किसी और का है।
मेरा तन किसी और का।
किन्तु मन आज भी चुपके से
खड़ा होता है तुम्हारे पीछे
सरगोशियां करता हुआ।
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