सुशील शर्मा
घर की नींव में दफ़न सिसकियाँ और आहें हैं स्त्रियां।
त्याग तपस्या और प्यार की पनाहें हैं स्त्रियां।
हर घर में मोड़ी और मरोड़ी जाती हैं स्त्रियां।
परवरिश के नाटक में हथौड़े से तोड़ी जाती हैं स्त्रियां।
एक धधकती संवेदना से संज्ञाहीन मशीनें बना दी जाती है स्त्रियां।
सिलवटें, सिसकियाँ और जिस्म की तनी हुई कमानें है स्त्रियां।
नदी-सी फूट पड़ती हैं तमाम पत्थरों के बीच स्त्रियां।
बाहर कोमल अंदर सूरज सी तपती हैं स्त्रियां।
हर नवरात्रों में देवी के नाम पर पूजी जाती हैं स्त्रियां।
नवरात्री के बाद बुरी तरह से पीटी जाती हैं स्त्रियां।
बहुत बुरी लगती हैं जब अपना हक़ मांगती हैं स्त्रियां।
बकरे और मुर्गे के गोस्त की कीमतों पर बिकती हैं स्त्रियां।
हर दिन सुबह मशीन सी चालू होती हैं स्त्रियां।
दिन भर घर की धुरी पर धरती सी घूमती हैं स्त्रियां।
कुलों के दीपक जला कर बुझ जाती हैं स्त्रियां।
जन्म से पहले ही गटर में फेंक दी जाती हैं स्त्रियां।
जानवर की तरह अनजान खूंटे से बांध दी जाती हैं स्त्रियां।
'बात न माने जाने पर 'एसिड से जल दी जाती हैं स्त्रियां।
'माल 'मलाई 'पटाखा ''स्वादिष्ट 'होती हैं स्त्रियां।
मर्दों के लिए भुना ताजा गोस्त होती हैं स्त्रियां।
लज्जा ,शील ,भय ,भावुकता से लदी होती हैं स्त्रियां।
अनगिनत पीड़ा और दुखों की गठरी होती हैं स्त्रियां।
संतानों के लिए अभेद्द सुरक्षा कवच होती हैं स्त्रियां।
स्वयं के लिए रेत की ढहती दीवार होती है स्त्रियां।
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