-सुशील कुमार शर्मा
जल और जीवन एक दूसरे के पर्याय हैं। अति प्राचीन काल से ही जल की मानव जीवन से सम्बद्धता विदित है। जनसंख्या की विस्फोटक बढ़ोतरी के कारण जल विश्व पटल पर सर्वाधिक चर्चा का एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है। विश्व में करीब 70% भूभाग पर जल है लेकिन सिर्फ 2.8% ही स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है एवं प्रथ्वी के कुल जल का .007% ही पृथ्वी के 6.8 बिलियन लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपलब्ध है। बेहतर जिन्दगी की आस में लोगों के लगातार शहर में बसने के कारण शहरों के मूलभूत ढांचे चरमरा गए हैं एवं इनमें पर्याप्त सुधार की आवश्यकता है।
भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार शहरी आबादी 38 70 लाख हो गई है। अगर पूरे भारत की बात करें तो 1.2 बिलियन लोगों के साथ भारत विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 17 प्रतिशत है। परंतु प्रतिकूल स्थिति यह है कि देश के पास विश्व स्तर पर स्वच्छ पेय जल संसाधनों का महज 4 प्रतिशत ही उपलब्ध है और भारत के नवीन स्वच्छ पेय जल संसाधन प्रतिवर्ष 1869 बिलियन क्यूबेक मीटर (BCM) मात्र हैं।
जनसंख्या बढ़ने के कारण देश में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता क्रमिक रूप से घटती जा रही है। 2001 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए देश में औसतन वार्षिक रूप से जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1816 क्यूबेक मीटर थी जो 2011 की जनगणना के अनुसार घटकर 1545 क्यूबेक मीटर हो गई है।
राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (National Water Development Agency (NWDA) द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार वर्तमान में लगभग 100 मिलियन हेक्टे. की तुलना में 2050 तक लगभग 160 हेक्टे. की संभावित प्रति जल आवश्यकता को पूरा करने के लिए नई रणनीतियों को अपनाना होगा, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि भारत की वर्तमान जनसंख्या 1.2 बिलियन से बढ़कर लगभग 1.4 से 1.5 बिलियन हो जाएगी, जिसके कारण भारतीय शहरी आबादी व्यापक रूप से जल की कमी एवं गंदे जल की समस्याओं से जूझ रही है।
केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) के अनुसार भारत के शहरों में रोजाना 38000 मिलियन लीटर गंदा जल इकठ्ठा होता है जिसमे से सिर्फ 12000 मिलियन लीटर जल ही साफ होकर पुनः उपयोग में लाया जाता है या वातावरण में मिल जाता है। बाकी का 26000 मिलियन लीटर गंदा जल शहरों के पर्यावरण को प्रदूषित करता हुआ उत्सर्जित हो जाता है।
भारतीय शहर नदियों को प्रदूषित करने में भी पीछे नहीं हैं अधिकांश नदियाँ जो बड़े शहरों के नजदीक बह रही हैं उनमें कार्बनिक प्रदूषण विशिष्ट रूप से जैव और रसायन आक्सीजन मांग (BOD) की मात्रा अपेक्षित मानदंडों से अधिक है। इन नदियों में कार्बनिक प्रदूषण, विशेष रूप से बी ओ डी की मात्रा बढ़ने का प्रमुख कारण यह है कि देश भर में विभिन्न नगरपालिकाओं द्वारा अन उपचारित और आंशिक रूप से उपचारित घरेलू अपशिष्ट पदार्थ इन नदियों में प्रवाहित किये जाते हैं। भारत की राष्ट्रीय नदी गंगा की साफ सफाई के लिए एक बड़े प्रयास हेतु बजट में 340 मिलियन डालर का आवंटन किया गया है।
2011 की जनगणना के अनुसार शहरों में सिर्फ 32.7% शहरी निवासी नाली व्यवस्था से जुड़े हैं। बाकी के लोगों के घरों का अपशिष्ट पानी खुले में प्रवाहित होता है। शहरी क्षेत्रों के 12.8% लोग अभी भी खुले में शौच जाते हैं। ये सभी अपशिष्ट नगरीय निकायों की घरों में आपूर्ति करने वाले जल में मिल कर बिमारियों का कारण बनते हैं एवं पीने वाले जल की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।
भारत में करीब 1.25 लाख लोगों की मौतें गंदे जल से फैली बीमारियों से होती हैं जिनमें 80% से ज्यादा रोगी हैजा, पीलिया, दस्त एवं निमोनिया जैसी जल केन्द्रित बीमारीयों से पीड़ित हैं। शहरी क्षेत्र के जल की गुणवत्ता में निरंतर ह्रास होता जा रह है। 1995 से लेकर 2015 तक के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं की शहरी क्षेत्रों के जल में जैविक तथा रासायनिक प्रदुषण में वृद्धि हुई है।
शहर में पीने के पानी के लिए उसकी गुणवत्ता महत्वपूर्ण है। जैसे जैसे शहर बढ़ता जाता है वैसे ही उसके पीने के पानी की गुणवत्ता एवं मात्रा में कमी आती जाती है।
शहरीकरण से पानी की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले कई कारक हो सकते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख निम्न हैं:
1. शहरों में खड़ा होता कांक्रीट का जंगल: शहरों में अधिकांश निर्माण कांक्रीट से होता है। भवन, सड़कें एवं अन्य विकास के निर्माण के कारण पूरा शहर कांक्रीट से पटा रहता है जिस कारण भूमि की जल सोखने की शक्ति कम हो जाती है एवं अपशिष्ट एवं वर्षा का पूरा पानी नालियों एवं सड़कों से बह कर शहर के किनारे की नदियों, तालाबों एवं झीलों को प्रदूषित करता है जो कि उस शहर के लिए पीने के पानी का प्रमुख स्त्रोत होता है।
2. जनसंख्या वृद्धि: जनसंख्या वृद्धि से मलमूत्र हटाने की एक गम्भीर समस्या का समाधान नासमझी में यह किया गया कि मल-मूत्र को आज नदियों व नहरों आदि में बहा दिया जाता है, यही मूत्र व मल हमारे जल स्रोतों को दूषित कर रहे हैं।
3. कृषि में बिना समुचित जाँच एवं गणना के बेतहाशा उर्वरकों का उपयोग: ये रासायनिक उर्वरक पानी के साथ-साथ 5 से 10 से०मी० प्रतिदिन की दर से धरती के भीतर प्रवेश करते हैं एवं अन्ततोगत्वा भूमिगत जल को प्रदूषित करते हैं।
4. आजकल भूमिगत जल प्रदूषण का मुख्य कारक औद्योगिक कचरे वाला जल है जो विभिन्न प्रकार के रसायनों के साथ बहुतेरे कार्बनिक एवं जैविक अपशिष्टों के साथ हमारे बहुमूल्य भूमिगत जल को दूषित कर रहा है।
5. हमारे भूमिगत जल को प्रदूषित करने का एक प्रमुख कारक हमारे मल-मूत्र हैं जो सीधे या शौचायल टैंकों से बिना पूर्ण जैविक विखण्डित हुए धीरे-धीरे भूमिगत जल को प्रभावित कर रहे हैं। कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते हुए आवासीय कालोनियों में जल निकास एक गम्भीर समस्या है।
6. लघु उद्योग एवं घरेलू नाली के पानी को खुली ओर कर उसे भूमिगत जल से सीधे मिला देते हैं। हमारा बहुमूल्य भूमिगत जलनिधि सीधी तरह से प्रदूषित हो रहा है।
7. मानव द्वारा निर्मित जैविक संदूषकों और भारी तत्वों का घुलना। इलैक्ट्रोप्लेटिंग, रंगाई के कारखाने और धातु आधारित उद्योगों आदि के कारण भारी तत्वों का काफी बड़ी मात्रा में जल में घुलना।
8. नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की निर्धारित से अधिक मात्रा का जल में समायोजन।
9. रेडियोएक्टिव पदार्थ भी प्रमुख प्रदूषक होते हैं। थर्मल एवं न्यूक्लियर पॉवर स्टेशनों से छोड़े गए पानी नदी और झीलों में पहुंचकर जलीय जीवों एवं मनुष्यों को रोगी बनाते हैं। इसे ‘तापीय प्रदूषण’ (Thermal Pollution) कहते हैं।
शहरी क्षेत्रों के आवासीय घरों में पानी का उपयोग:
2011 की जनगणना के अनुसार 99.5 प्रतिशत घरों में पीने का पानी, पानी का नल, ट्यूब वैल, हैंड पम्प ढके हुए कुएं उपलब्ध हैं, जबकि 93.7 प्रतिशत घरों में पानी पीने का नल प्रयोग में लाया जाता है। 86.2 प्रतिशत घरों में पीने के पानी का स्रोत घर के आंगन में ही पाया गया है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 11.7 प्रतिशत लोगों को पानी 500 मीटर दूर से और शहरी क्षेत्रों के लोगों को 100 मीटर दूर से लाना पड़ता है। शहरी आवासीय घरों में पानी के उपयोग का आंकड़ा निम्नानुसार है-
1. कपड़े धोने में- 26%
2. नहाने में- 21%
3. घरों एवं मोटर आदि की सफाई में- 10%
4. बर्तन धोने में- 03%
5. शौचालय में- 20%
6. नल टोंटी रिसाव- 15%
7. अन्य उपयोग- 05%
शहरों में पानी की गुणवत्ता बनाये रखने के उपाय:
भारत में यह अनुमान है कि वर्तमान में शहरी आबादी के 17% लोगों के पास कोई भी वांछित सुविधा नहीं है तथा गंदे पानी की 50-80 % मात्रा को बिना किसी भी उपचार के निपटा दिया जाता है। निम्न प्रकार से शरी क्षेत्रों में पानी की गुणवत्ता को बचाया जा सकता है।
शहरी क्षेत्र के आवासीय लोगों के लिए भू जल एवं प्राकृतिक साथी जल दोनों का उपचार जरूरी है क्योंकि वर्षा के जल एवं अपशिष्ट जल के मिल जाने के कारण शहरी क्षेत्र का जल अत्यंत प्रदूषित रहता है। विकास शील देशों में उपचार करने वाले संयंत्रों की कमी के कारन लोगों को दूषित पानी पीना पड़ता है जिस कारण से इन देशों के रहवासी विभिन्न बीमारियों के शिकार होते हैं।
पीने के जल की गुणवत्ता को बहुत से कारक प्रभावित करते हैं जिनमें माइक्रो ऑर्गनिज्म (Microorganism) जैसे क्रिप्टो इस्पोरिडियम (Sporidium) तथा गिरेडिया लेम्बिया (Giardia lamblia) होते हैं इसके साथ कैंसर उत्पन्न करने वाले रसायन आर्सेनिक (Arsenic), क्रोमियम (Chromium), पारा (Mercury) तथा अनेक रेडियो धर्मी (Radioactive) तत्व व कीट नाशक पाये जाते हैं। शहरी क्षेत्र के जल की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों में 1. कीचड़ 2. तलछट 3. अपशिष्ट जल 4. जीवाणु एवं रोगजनित कीटाणु 5. तेल एवं विषैले तत्व प्रमुख हैं।
शहरी जल की गुणवत्ता जल के आपूर्ति तंत्र एवं जल निकास पर भी निर्भर करती है। शहरी जल के निकास में निम्न कारक शामिल होते हैं 1. वर्षा जल एवं सतह के जल का निकास 2. तलछट परिवहन 3. प्रदूषित जल का निकास 4. परिवहन पाइप में जल का प्रवाह।
शहरी क्षेत्र में पानी की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए निम्न सावधानियाँ आवश्यक हैं:-
1. नगरीय निकाय को पेयजल का आपूर्ति तंत्र विकसित करना चाहिए।
2. पानी का स्टोरेज ओवर हेड टैंक में होना चाहिए।
3. पानी की आपूर्ति घरों तक पाइप लाइन द्वारा होनी चाहिए।
4. पापे लाइन शहर की नालियों में से नहीं जानी चाहिए क्योंकि नालियों का प्रदूषित जल रिस कर पेयजल में मिल जाता है।
5. अपशिष्ट जल की निकासी की व्यवस्था चेंबर युक्त बंद नालियों में से होनी चाहिए।
6. हर सप्ताह ओवर हेड टैंकों का कीटाणुशोधन होना चाहिए।
7. आपूर्ति तंत्र में पाइप लीकेज जांचने की व्यवस्था होनी चाहिए।
8. शहर की अधिकांश कालोनियां नालियों से जुडी होनी चाहिए ताकि अपशिष्ट जल का भूमि में समाहन कम हो।
9. सम्पूर्ण आपूर्ति तंत्र कंप्यूटर नेटवर्क से संचालित होना चाहिए ताकि पाइप लीकेज एवं वाटर क्वालिटी का मापन शीघ्रता से हो सके।
पानी को उपचारित करने की बहुत सारी विधियाँ हैं जिनमे से कुछ निम्न हैं
1. फिल्ट्रेशन
2. रासायनिक उपचार
3. उलट परासरण
4. सौर कीटाणुशोधन
5. लाइफ स्ट्रॉ
6. नैनो फिल्टर
7. सिरेमिक वाटर फ़िल्टर
8. बायो सेंड फ़िल्टर
9. आर्सेनिक फिल्ट्रेशन
शहरों में पानी की संरक्षण के उपाय:
-यह जांच करें कि आपके घर में पानी का रिसाव न हो।
-आपको जितनी आवश्यकता हो उतने ही जल का उपयोग करें।
-पानी के नलों को इस्तेमाल करने के बाद बंद रखें।
-मंजन करते समय नल को बंद रखें तथा आवश्यकता होने पर ही खोलें।
-नहाने के लिए अधिक जल को व्यर्थ न करें।
-ऐसी वाशिंग मशीन का इस्तेमाल करें जिससे अधिक जल की खपत न हो।
-खाद्य सामग्री तथा कपड़ों को धोते समय नलो का खुला न छोड़े।
-जल को कदापि नाली में न बहाएं बल्कि इसे अन्य उपयोगों जैसे- पौधों अथवा बगीचे को सींचने अथवा सफाई इत्यादि में लाए।
-सब्जियों तथा फलों को धोने में उपयोग किए गए जल को फूलों तथा सजावटी पौधों के गमलों को सींचने में किया जा सकता है ।
-पानी की बोतल में अंततः बचे हुए जल को फेंके नही अपतु इसका पौधों को सींचने में उपयोग करें।
-पानी के हौज को खुला न छोड़ें ।
-तालाबों, नदियों अथवा समुद्र में कूड़ा न फेंकें।
-धीमी गति के शावर हेड्स(कम पानी गरम होने के कारण कम ऊर्जा का प्रयोग होता है और इसीलिए इसे कभी-कभी ऊर्जा-कुशल शावर भी कहा जाता है)|
-धीमा फ्लश शौचालय एवं खाद शौचालय. चूंकि पारंपरिक पश्चिमी शौचालयों में जल की बड़ी मात्रा खर्च होती है, इसलिए इनका विकसित दुनिया में नाटकीय असर पड़ता है।
-शौचालय में पानी डालने के लिए खारे पानी (समुद्री पानी) या बरसाती पानी का इस्तेमाल किया जा सकता है।
-फॉसेट एरेटर्स, जो कम पानी इस्तेमाल करते वक़्त 'गीलेपन का प्रभाव' बनाये रखने के लिए जल के प्रवाह को छोटे-छोटे कणों में तोड़ देता है. इसका एक अतिरिक्त फायदा यह है कि इसमें हाथ या बर्तन धोते वक़्त पड़ने वाले छींटे कम हो जाते हैं।
-इस्तेमाल किये हुए पानी का फिर से इस्तेमाल एवं उनकी रिसाइकिलिंग:
-जल को देशीय वृक्ष-रोपण कर तथा आदतों में बदलाव लाकर भी संचित किया जा सकता है, मसलन- झरनों को छोटा करना तथा -ब्रश करते वक़्त पानी का नल खुला न छोड़ना आदि।
वाणिज्यिक जल बचाने के उपाय: कई ऐसे उपकरण (जैसे धीमे फ्लश वाले शौचालय), जो घरों में मददगार होते हैं वे वाणिज्यिक जल बचाने में भी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। व्यावसायिक क्षेत्र में जल बचाने के अन्य तकनीकों में निम्नलिखित शामिल हैं:
-जल-रहित शौचालय
-कारों को बिना जल के साफ़ करना
-इन्फ्रारेड अथवा पैर से चलने वाले नल, जो रसोई या स्नानघर में धोने के काम के लिए जल के छोटे बर्स्ट का उपयोग कर जल बचा सकते हैं।
-दबावयुक्त वाटरब्रूम्स, जो पानी की जगह बगलों को साफ़ करने के काम आ सकें।
एक्स-रे फिल्म प्रोसेसर रीसाइकिलिंग सिस्टम
कूलिंग टावर कंडकटीवीटी कंट्रोलर्स
जल-संचयक वाष्प स्टेरिलाइज़र्स, अस्पतालों आदि में उपयोग के लिए.
ताजे पानी की घटती उपलब्धता आज की सबसे बड़ी समस्या है। पानी का संकट अनुमानों की सीमाओं को तोड़ते हुए दिन प्रतिदिन गंभीर होता जा रहा है। जहां एक ओर शहरी आबादी में हो रही वृद्धि से यहां जलसंकट विकराल रूप लेता जा रहा है वही दूसरी ओर आधुनिक कृषि में पानी की बढ़ती मांग स्थितियों को और स्याह बना रही है। आवश्यकता इस बात की है कि पानी को लेकर वैश्विक स्तर पर कारगार नीतियां बने और उन पर अमल भी हो। औद्योगीकरण और शहरीकरण की रफ्तार में बढोतरी के साथ ही पानी की मांग में भी बेहिसाब बढोतरी होगी, जिससे पानी के प्राकृतिक स्रोतों पर बेहिसाब दबाव बढ़ेगा, जो कि पहले से ही दबाव में हैं, मगर हैरानी की बात ये है कि इतनी बड़ी वैश्विक समस्या पर दुनिया भर की राजनितिक शक्तियाँ मौन हैं।
सुशील कुमार शर्मा
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