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मैं तुम्हारी उर्मिला

 

(लक्ष्मण उर्मिला संवाद)
सुशील शर्मा

 

 

मैं तुम्हारी उर्मिला अशेष
चौदह बरस निर्मिषेष
एक दीप के सहारे
काटे मैंने बिना तुम्हारे।
तुम तो अक्षुण्य हो गए
भ्रात सेवा कर धन्य हो गए।
मेरा किसी ने जिक्र न किया
तुम बिन कैसे कैसे रही मैं पिया।
क्या इस चुप्पी पर बोलोगे?
क्या भ्रात धर्म से मुझे तौलोगे?
सीता मेरी बहिन दुखी है।
सब कष्टों के बाद सुखी है।
क्योंकि अपने पिय के पास रही है।
मेरी प्रीत आंसुओं में बही है।
एक पल सदियों से बीता है।
इंतजार में कोई इतना जीता है।
सदियों सी लंबी अकेली मेरी रातें
पिय बिन आंख बनी बरसातें।
मूक दीप जलाए अकेली इस संसार में।
प्रिय लौट आओ खड़ी हूँ इंतजार में।

 

 

*लक्ष्मण का आश्वासन*

 

 

सत्य उर्मिले तुम्हारा त्याग
नही उसका मैं एक भाग।
जो तुम न देती विश्वास।
कैसे काटता ये वनबास।
प्रभु सेवा का पुण्य।
मिलेगा तुम्हे भी अक्षुण्य।
जब भी होगी भ्रात सेवा की बात।
उर्मिला का तप नही होगा निर्वात।
राम के चरणों की सौगंध
भ्रातसेवा से आबंध
डोर संग जैसे पतंग
लक्ष्मण है उर्मिले संग
अयोध्या में जब भी वापिस आऊंगा।
तुम्हारे बीते पलों को लौटाऊंगा।

 

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