सुशील शर्मा
एक सपना
आंसू सा गिरा
झिलमिलाता हुआ
बना यादों की नदी।
शब्द झरे लेखनी से
कुछ छंद से
कुछ मुक्त से
लिपटे हैं कागज में
तुम्हारे प्रतिबिम्ब।
एक पेड़ सी तुम
जीवन दायनी
काटता हूँ कुल्हाड़ी सा तुम्हे
और खुद कट कर
गिर जाता हूँ।
चरमराता हुआ
निरीह सा।
हर कविता
चेतना की धारा सी
रूपायित होकर
स्वयंसिद्धा बन
तुम्हें समेटे
बन जाती है
संचित स्मृति।
आम का बौरना
सन्देश है कि
तुम्हारी स्मृतियाँ
आरण्यक प्रकृति लिए
कालमृगया बन
आ रही हैं
मन को छलाँगते।
आकुल मधु समीर
सी पुलकित
मन की पाँखे
झरते मधुकामनी
के फूलों सी
तुम्हें पाने की
जिजीविषा
और फिर अंत हीन
तन्हाई।
अनुक्षण प्रतिपल
सौंदर्य वेष्टित
प्रेम विन्यास लिए
शब्दों के छंद सी
तुम्हारी यादें।
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