सुशील कुमार शर्मा
आज जब इस विषय पर लिखने बैठा तो पूरा साल स्मृतियों में किसी बच्चे की
चीख चिल्लाहट उसकी मृदुल हँसी की भाँति झिलमिला गया कुछ खट्टी यादें कुछ
मीठी यादें हालाँकि मैंने इन यादों को अपने मन में संजों कर रख लिया है
जैसे काला बाजारियों ने नोटों को तिजोरी में रखा हुआ था लेकिन आपसे वादा
है आप जब भी इनका हिसाब मांगेंगे मैं पूरा हिसाब दूँगा ,आज में सिर्फ
साहित्य एवम मानवीय रिश्तों के सन्दर्भ में बात करूँगा।
यदि वर्तमान में हमने कुछ खोया है तो वह है - रिश्तों की बुनियाद। दरकते
रिश्ते, कम होती स्निग्धता, प्रेम और आत्मीयता, इतिहास की वस्तु बनते जा
रहे हैं।आज नव वर्ष के उपलक्ष्य में कुछ संकल्पों की मानव और मानवीयता को
अभीष्ट आवश्यकता है।
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता
है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए
मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है यही बात उसे संकल्पित करती है।
यही संकल्प मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाते
है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होते है।
हर साल के शुरुवात होने से पहले हम सब सौ प्रतिशत उत्साहित होते हैं कुछ
अच्छा और नया करने के लिए पर जैसे ही हम नए वर्ष में घुसते हैं हम सब कुछ
भूल जाते हैं। ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिए क्योंकि यही उस वर्ष का असफलता
का पहला कारण होता है।आज इस नव वर्ष के उपलक्ष्य में हम निम्न गुणों के
लिए संकल्पित हों।
1. लोगों को अंदर से पसन्द करिये
2. मुस्कराहट के साथ मिलिए।
3. लोगों के नाम ध्यान रखिये।
4. "मैं " से पहले "आप "को रखिये।
5.बोलने से पहले सुनिए
6.क्या कहते हैं से कैसे कहते हैं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
7.बिना अपना फायदा सोचे दूसरों की सहायता करिए
8.अपनी भेष भूसा को उत्तम बनाइये।
9.आप जिसकी प्रशंसा कर सके उसे खोजिये
10. अपने को लगातार परखिये एवं सुधार करते रहिये।
सबसे महत्वपूर्ण बात अपने अन्दर सकारात्मक सुविचार लायें।अपने कार्य को
सफल बनाने के लिए सही योजना बनायें। आपको अपने लक्ष्य को पाने के लिए
अपने आप से अटल वायदा करना पड़ेगा, तभी आप हमेशा अपने संकल्पों को सफल
बनाने के लिए प्रेरित रहेंगे। पक्का कर लें कि चाहे रास्ते में जितनी बड़ी
मुश्किल आए या छोटी-मोटी असफलता आए आप रुकेंगे नहीं चाहे बार-बार आपको
जितना भी कोशिश करना पड़े ।
आज दुनिया में पश्चिमी साम्राज्यवाद का शिकंजा तेजी से कसता जा रहा है,
जिसके कारण एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिकी देशों के स्वतंत्र अस्तित्व
और पहचान पर गंभीर खतरा उपस्थित है। दूसरी ओर हमारे समाज में नवजागरण तथा
राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के ऊँचे आधुनिक आदर्शों को रौंदते हुए छद्म
तुष्टिकरण और जातिवादी ताकतें नए सिरे से सक्रिय हुई हैं। इधर भाषिक
पृथकतावाद तथा अन्य संकीर्णताएँ भी पनपी हैं। लोगों को उनकी सांस्कृतिक
जड़ों से विच्छिन्न किया जा रहा है और उपभोक्तावाद फैल रहा है। जन संचार
माध्यम द्वारा सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाया जा रहा है, जिसके कारण लोग
अपसंस्कृति के दल-दल में फँस रहे हैं। बुनियादी मानवीय मूल्य आज गहरे
संकट में हैं।
भारत मिश्रित संस्कृतियों का संघ है अथवा यह भी कह सकते हैं कि वह कई
राष्ट्रीयताओं का संघीकृत राज्य है।उपर्युक्त संदर्भ को भारत की आंतरिक
समाज व्यवस्था पर घटाने का प्रयास करें तो भी स्थिति कुछ सहज नहीं होगी।
आज भी हमारी मौलिक समस्याएँ क्या हैं? वर्तमान साहित्यकारों के लिये आज
भी भारत की मौलिक समस्या भूख, गरीबी, बेरोजगारी, असमानता, आइडेंटिटी
क्राइसिस आदि ही हैं।आधुनिक साहित्य ने राष्ट्रवाद को विकास करने में
अहम् भूमिका निभाया है। यही कारण है है कि भारत की जनसंख्या
बहुधर्मी-बहुजातीय एवं बहुभाषी होने के बाद भी राष्ट्रवाद की ओर अग्रसर
है।
साहित्य अब सामाजिक सक्रियता की ओर बढ़ना चाहता है। परिवर्तन की अदम्य चाह
में कवि ‘एक्टिविस्ट’ के तौर पर ‘कलम की ताकत’ को नई भूमिका में 21वीं
सदी में प्रस्तुत कर रहा है। आज का उस दौर का साक्षी है जहाँ मनुष्य के
अमानवीकरण की गति में तीव्रता आई है। वैचारिक दृष्टि से समाजवाद का
स्वप्न ध्वस्त हुआ है तो यांत्रिक सभ्यता का कहर भी विद्यमान है। मानवता
को खूंटियों पर टाँग देने का प्रयास हो रहा हो, आज साहित्यकार को न केवल
आक्रोश व्यक्त करना होता है, बल्कि वह उस विचारहीनता को चुनौती दे रहा
है।
आज नए-नए संगठनों का जन्म होने लगा। नए लेखकों और साहित्यकारों के
छोटे-छोटे समूहों ने, छोटी-छोटी जगहों से, इस दौर में अपनी सामर्थ्य के
अनुसार, छोटी पत्रिकाओं का प्रकाशन और अक्सर मुफ्त या सामान्य मूल्य पर
उनका वितरण निष्ठापूर्ण उत्साह के साथ किया जा रहा है ताकि आम पाठक तक
उसकी पहुँच हो सके।आज साहित्यकार इस बात के मुखापेक्षी नहीं रह गए कि वे
बड़ी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं या नहीं। सेठाश्रयी पत्रिकाओं के
बहिष्कार का तो नारा ही चल पड़ा है ।'आज के दौर में 'जरूरी यह हो गया है
कि रचित साहित्य सामाजिक परिवर्तन का पक्षधर है या नहीं।'
आज के साहित्यकार को चुनौती है की वह सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य का
बहुआयामी विश्लेषण करें एवं सामाजिक जीवन के उच्चत्तर मूल्यों एवं
आदर्शों के सामने सांप्रदायिकता एवम तुष्टिकरण से उत्पन्न हो गए खतरों
को रेखांकित करे । इस संदर्भ में सांस्कृतिक माध्यमों, विशेषकर
लघु-पत्रिकाओं की बढ़ी हुई जिम्मेदारियों को महसूस करते हुए संकट की इस
घड़ी में मिलजुल कर अपनी प्रखरतम भूमिका का ऐतिहासिक दायित्व निभाने के
लिए आज का रचनाकार तैयार है।
मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच जैसे रचनाधर्मी संस्थान आज साहित्य को
जनक्रांति बनाने के लिए कृत संकल्पित है। साहित्य जब जन सामान्य की विषय
वस्तु बन जाता है तभी वह आम संवेदनाओं का सम्प्रेषण कर पाता है।
आजादी के 69 साल पूरे हो जाने पर भी हवा, पानी और रोटी की समस्या हल
नहीं होना, उस भ्रष्ट तंत्र का चेहरा प्रस्तुत करता है, जिसका प्रभाव इस
दशक तक जारी है। आज के साहित्य का आक्रोश देर तक संयमित नहीं रह पाता।
मनुष्य के राक्षस बनने की प्रक्रिया पर आज का साहित्य उस विचारहीन,
बेढाल, निर्द्वन्द्व अथवा मरे हुए लोगों की भाँति पीढ़ी पर व्यंग्य कर रहा
है। रचनाकार अपनी रचनाओं में वर्तमान के प्रति चिंता व्यक्त करता है, देश
की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करता है, इन
स्थितियों में सुधार की कामना करता है, जनता का आह्वान करता है और स्वयं
सक्रियतापूर्वक भाग भी लेता है।
प्रगति, विकास, संस्कृति, इतिहास-भूगोल आदि की जड़ भाषा होती है ,और भाषा
को समृद्ध साहित्य करता है | साहित्य प्रत्येक वर्तमान को कलात्मक एवं
यथार्थ रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता हैं | मनुष्य चाहे जितना
प्रगति करलें , विकास की डींगे हाँक ले , सभ्यता का दंभ भरे | पर जब तक
वह भीतर से सभ्य नहीं होता, तब तक मनुष्य की सही मायने में प्रगति नहीं
हो सकती |नव वर्ष के शुरुआत से हम सभी रचनाकार ये संकल्प लें की हम अपने
देश समाज और पर्यावरण को अपनी लेखनी से ही नहीं वरन अपने आचरण से एक नयी
दिशा प्रदान करने की कोशिश करेंगें।
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