सुशील कुमार शर्मा
परिवर्तन की निश्चित धारा में।
जब एक नहीं बहेगा हमारा 'मैं '
तब तक सदा परिवर्तनशील समय।
जकड़ा रहेगा उम्रकैदी की मानिंद।
अहंकार की काल कोठारी में।
जलवायु का परिवर्तन कष्टकारी है।
कठिन है किन्तु स्वीकार्य है।
प्राकृतिक परिवर्तन भी देते हैं आनंद।
हर वर्ष नवपल्लव ऊग कर।
देतें हैं धरा को नवजीवन।
प्रकृति का हर रूप परिवर्तन के प्रति
सजग और संवेदनशील है।
परिवर्तन मनुष्य भी चाहता हैं
लेकिन स्वयं में नहीं।
हम हमेशा दूसरों में चाहते हैं परिवर्तन।
स्वयं के जड़ संस्कारों और गंदलेपन को।
तरजीह देतें हैं हमेशा दूसरों पर।
उछालते हैं कीचड़ अपनी जमी हुई काई की।
हम नहीं बदलना चाहते अपनी त्वरा को।
हम संतुष्ट हैं अपनी कूपमंडूकता से।
हमारा शरीर यात्रा कर लेता है।
जन्म से अंत्येष्टि तक की।
किन्तु हमारा मैं अपरिवर्तनीय है
जन्म से मृत्यु तक एक ठूंठ की तरह।
परिवर्तन की निश्चित धारा में।
बहा आओ अपना अहंकार।
परिष्कृत होंगे तुम्हारे विचार।
जन्मेगा प्रगति का नव पल्लव।
प्रशस्त होंगे विकास पथ।
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