सुशील शर्मा
एक सूरज चाँद समूचा
थोड़े आवारा से तारे
डूबते जाते है मेरे रक्त में
डूबती सुबह और ऊगती शाम
लगते है मुझे अपने आस पास
पिघलती संवेदनाओं के मानिंद
जो पसीने की भांति भिगो देती है।
मेरे अंतर्मन को और रोक देती है
मेरे रक्त के उबलने को।
रक्त अब बहता नही
बहुत कोशिश के बाद भी
रक्त अब बहता नहीं।
ठंडा होकर जमा है धमनियों में
अनगिनित निर्भयाओं के
बलात्कार के बाद भी,
कई मासूम प्रद्युमनों के
गला रेतने के बाद भी,
असंख्य कुपोषित बचपनों
के मौत के बाद भी,
न जाने क्यों रक्त अब
उबलता नही
हर दिन कई दीना मांझी ढो रहे है।
अपनों की लाशों को।
हरदिन कई बुजर्ग खड़े रहते है
बिलों की लाइन में।
हरदिन कई मासूम पत्नियां
पिटती है शराब से।
कई बेटियां सोनागाछी में लगाती है
अपनी देह की मंडी।
असंख्य छात्र बेरोजगारी में फॉर्म भरते है ।
और फिर लुट जाते है नौकरी के दलालों से।
उसके बाद भी न जाने ये मेरा रक्त नही उबलता।
हे गणतंत्र के सर्वोच्च तुझे सब
इस राष्ट्र का भगवान कहते है।
तेरे चरणों पर लोट के चढ़ते है
सिंहासन की सीढ़ियां।
और फिर आरक्षण
जातिवाद भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर तेरे सामने ही तुझे खड़ा करते है लड़ने।
उसके बाद भी तू चुप रहता है।
क्या हो गया तेरे रक्त को।
उबलता क्यों नही।
खेत पर पिघलती सहमी हुयी है सर्द रातों में।
अन्नदाता की घुटी चीख
जो भटकती है सरकार और दलालों के बीच।
और फिर लटक जाती है
किसी पेड़ पर यक्ष प्रश्न फेंक कर।
उसका रक्त भी नही उबलता
जाने क्यों।
समंदर की सतह अब
शांत सी दिखने लगी है
आतंक की बंदूकों पर से
उठता धुंआ था जो चिता पर
छोड़ जाता है बिलखते रिश्ते।
फिर भी तेरा या मेरा रक्त उबलता क्यों नही है।
अब तुम्हारे प्यार का अहसास भी
उबाल नही मारता अंदर
क्योंकि उस पर उम्र का मुल्लमा
चढ़ा है राख की तरह।
और अंत का सन्देश ले कर
अपने अनंतों में डूब जाता हूँ।
मैं वहीं हूँ , तुम वहीं हो
फिर कहाँ गया हमारे रक्त का वो उबाल।
क्या हो गया ?
क्यों खो गया वो उबाल कर इस शान्ति में ।
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY