Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

राष्ट्रीय अस्मिता का त्यौहार ---रक्षाबंधन

 

भारतीय परम्परा एवं जीवन शैली में विश्वास ही मूल बंधन है। सर्वेः भवन्तुः सुखिनः का उद्घोष करने वाली त्योहारों की परम्परा राष्ट्र को गौरवान्वित करती है। रक्षाबंधन के त्यौहार में राष्ट्र की सामाजिक समरसता,सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ,एवं अतीत से जुड़े रहने का सुखद अहसास है।
राष्ट्र की गंगा जमुनी तहजीब के सच्चे स्मारक हमारे त्यौहार ही हैं। रक्षाबंधन का त्यौहार इसी परम्परा का निर्वहन करता है। रक्षा सूत्र का कलाई पर बंधना सिर्फ रक्षा का वचन ही नहीं अपितु प्रेम,सम्पूर्ण निष्ठा व संकल्प के द्वारा हृदय को बंधने का एक अद्भुत प्रयास है। गीता में कृष्ण ने कहा है 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव ''अर्थात सूत्र अविच्छिनता का प्रतीक है।
यह त्यौहार भारतीय परम्पराओं ,ऐतिहासिक प्रतिपादनों, सामाजिक समरसता ,पौराणिक आख्यानों एवं भारत के एकनिष्ठ राष्ट्र की परिकल्पनाओं को प्रतिपादित करता है।
पौराणिक संस्मरणों में राजा बलि के द्वारा 100 यज्ञ पूरे करने के पश्चात स्वर्ग को हथियाने की लालसा को जब विष्णु रूप वामन भगवन ने विफल कर दिया एवं तीन पग में पूरे ब्रह्माण्ड को नाप कर राजा बलि को रसातल मनी भेज कर स्वयं हमेशा उनके साथ रहने के लिए चले गए तब लक्ष्मीजी ने राजा बलि को भाई बना कर रक्षा सूत्र बांधा एवं उपहार स्वरुप अपने पति को वापिस पाया। तब से हर ब्राह्मण यह श्लोक कह कर यजमान को संकल्पित करता है।
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल.
इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना।
जब द्रौपदी ने कृष्णा की कलाई में से रक्त बहते देख अपनी साडी का किनारा फाड़ कर बांधा तब कृष्णा और द्रौपदी का भाई बहिन का उत्कृष्ट सम्बन्ध बना।
ऐतिहासिक रूप से राजा पुरू एवं सिकंदर महान की पत्नी का भाई बहिन का पावन रिश्ता जिसके कारन पुरू ने सिकंदर को कई बार जीवन दान दिया।
कर्णावती का अपने भाई हुमांयू को रक्षा सूत्र भेज कर अपनी अस्मिता का वचन लेना यद्यपि हुमांयू के समय पर न पहुँचने के कारन कर्णावती को जौहर करना पड़ा था जिसका पश्चाताप हुमांयू को हमेशा रहा था।
ये सभी रिश्ते मानव सम्बन्धों की बुनियाद हैं जिन से सबक लेकर हम अपने संस्कारों को परिमार्जित कर सकते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जन जागरण में रक्षाबंधन के पर्व का सहारा लिया गया। 1905 में लार्ड कर्जन ने बंग भंग करके वन्देमातरम आंदोलन को शोलों में बदल दिया ,लार्ड कर्जन का विरोध करते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर लोगों के साथ यह कहते सडकों पर उतरे थे।
सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन, सुनेना सुनिल कर्ज़न दुर्जन;
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आमि स्वजने राखी बन्धन।
उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत में यह पर्व अलग नाम एवं अलग अलग पद्धतियों से मनाया जाता है। उत्तर भारत में "श्रावणी "नाम से प्रसिद्ध यह पर्व ब्राह्मणों का सर्वोपरि त्यौहार है। यज़मानो को यज्ञोपवीत एवं रक्षा सूत्र देकर दक्षिणा प्राप्त की जाती है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परम्परा भी है। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं।
महाकौशल क्षेत्र विशेष कर नरसिंहपुर एवं गाडरवारा परिक्षेत्र बुंदेलखंड एवं गोंडवाना संस्कृतियों का अद्भुत संगम क्षेत्र है। यंहा की सभ्यता एवं बोली पर इन दोनों संस्कृतियों का प्रभाव है। रक्षाबंधन पर्व कजलियों के बिना अधूरा है। श्रावण शुक्ल नवमी के दिन लोग बांस की टोकरियों या पत्तों के बड़े दोनों में गेंहू बोते हैं। भाद्रपद कृष्ण प्रथम के दिन इन अंकुरित कजलियों को जिन्हे आंचलिक भाषा में "भुजरियाँ " कहते हैं अपने इष्ट देव को समर्पित करके नदी में विसर्जित करते हैं एवं विसर्जन के पश्चात थोड़ी कजलियाँ घर लेकर आते हैं। शाम को सब समूह बना कर अपने इष्ट मित्रों के घर घर जा कर भुजंलियों का आदान प्रदान करके बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं जिस घर में उस वर्ष कोई मृत्यु हुए हो उस घर में जाकर लोग कजलियों के आदान प्रदान द्वारा सांत्वना देते हैं। उस दुखी परिवार को गहन दुःख से निकालने की एक अद्भुत परम्परा एवं सामाजिक सौहाद्र से जुडी ये प्रथा निश्चित ही अनुकरणीय है ।
रक्षा बंधन के पर्व को किसी जाति, धर्म या ,परम्परा से जोड़ना उसके निहित अर्थों को लघुता प्रदान करना है। ये पर्व मानव से मानव एवं मानव से प्रकृति के संबंधों को उच्चता प्रदान करने वाला है। राष्ट्रीय अस्मिता को पहचान देने वाला एवं भाषाई एवं क्षेत्रीय सीमाओं को लाँघ कर परस्पर स्नेह के बंधनो को बाँधने वाला त्यौहार है। कलाई पर बंधा हुआ सूत्र एक बहिन के विश्वास एवं भाई के संकल्प का प्रतिरूप है। हमारी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय अस्मिता को एक सूत्र में पिरोने का अवसर यह त्यौहार है। इस पर्व में समता ममता व समरसता रची बसी है जो की हमारे जीवन का मूल आधार है, एवं हमारे राष्ट्र के अविच्छिन्न होने के संकल्प को प्रति पादित करता है।

 

 

अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं, सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं, स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत् ।।

 

 

 

सुशील कुमार शर्मा

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ