Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

साहित्य में शब्द और भाव और अनुभूतियाँ

 

सुशील शर्मा

 

 

मनुष्य में जटिल, सूक्ष्म, भावनाओं के अनुभव करने की अद्वितीय क्षमता है । साथ ही भाषा के साथ एक दूसरे के लिए उन अनुभवों से संवाद स्थापित करने की एक अद्वितीय चुनौती भी मनुष्य के सामने रहती है।बहुत सारे अनुसंधान ने सिद्ध किया है कि कैसे हमारे भावनात्मक अनुभव भाषा के द्वारा सम्प्रेषित होते हैं। भाषा में जिन प्रतीकों के माध्यम से शब्दों का निर्माण होता है वे हमारी भावनाओं को आकार देने में कितने सक्षम है ये उन प्रतीकों के आपसी समन्वय और विकास की श्रंखला पर निर्भर करता है। ये प्रतीक हमारे मन की चिन्ताओं, अभिव्यक्तियों को सहजता से अंकित करते हैं । साहित्यकार के भाषायी गुंजान में ऐसी शाब्दिक आकृतियाँ, आवृत्तियाँ झलकती-तैरती हैं जो लम्बे समय से भारतीय पाठक के मानस के सचेत संवेदन में उमगती-उभरती रही हैं।
भावनाएं भौतिक होती हैं जो शब्दों से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भाषा भावनात्मक रूप में एक मौलिक तत्व है जो भावनाओं के अनुभव और धारणा दोनों का मिश्रण है। मनोवैज्ञानिक निर्माणवादी संकल्पनात्मक अधिनियम के सिद्धांत (सीएटी) के अनुसार, भावना किसी व्यक्ति के शरीर उसके हावभाव से सम्बंधित होती है। भावनाओं के बारे में अवधारणा ज्ञान का उपयोग करते हुए वर्तमान स्थिति में परिभाषित की जा सकती है। भाषा भावनाओं को व्यक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि भाषा एक वैचारिक ज्ञान का समर्थन करती है जो किसी संदर्भ में शरीर और संसार से संवेदनाओं का सम्बन्ध विश्लेषित करती है।यहाँ पर भाषा के विकासात्मक और संज्ञानात्मक तथ्यों की समीक्षा जरूरी है। ताकि भाषा के ढांचे को अवधारणा के ज्ञान के रूप में विश्लेषित किया जा सके, जो मनुष्य के जीवन काल में भावनाओं की श्रेणियों जैसे अमूर्त अवधारणाओं को प्राप्त करने में मदद कर सके।भाव या मनोविकार की परिभाषा देते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं “नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनसे सम्बन्ध रखने वाली इच्छा की अनेकरूपता भिन्न -भिन्न अनुभूति भाव या मनोविकार कहलाते है।
अनुभूति मुख्यतः दो प्रकार की होती है – सुखात्मक तथा दुखात्मक। सुख वर्ग में रति , यश ,उत्साह , आदि भाव आते है। और दुःख वर्ग में ईर्ष्या ,भाव ,क्रोध ,घृणा ,करुणा ,आदि। शब्द-समूह रुप-विन्यास का मूलधन है। शब्दों की सामग्री को नाना रुपों में सजाकर कविता में रुप-संबंधी भंगिमा लाई जाती है। जिन शब्दों के सहारे एक कवि एकदम सीधी-सादी सपाट कविता लिखता है, उन्हीं को नवीन क्रम से सजाकर भावुक कवि मार्मिक सौंदर्य पैदा कर देते है।
भाषा व्यक्तियों को संवेदी धारणाओं का अर्थ समझने के लिए अवधारणाओं का उपयोग करने में सहायता करती है। अभिव्यक्ति जो सहज ही साहित्यकार के अन्तरंग मनोभावों से हवा की तरह बहती है और शब्दों को सिहराती है तो तन-मन में कुछ विशेष घटित होता है। आज की सामाजिक संरचना में साहित्यिक और राजनीतिक विचारधाराओं के तहत व्यक्ति नागरिक का आंतरिक पहले से कहीं ज्यादा उलझा हुआ और संश्लिष्ट है।
हम भावनाओं के एक मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से इस बात को समझ सकते हैं कि भाषा भावना अवधारणा ज्ञान के लिए "गोंद" के रूप में कार्य करती है, अव्यक्त अनुभवों को बाध्यकारी अवधारणाओं से संवेदी जानकारी के सतत प्रसंस्करण को आकार देने के लिए भाषा शब्द और भावनाओ का समन्वय जरुरी है। साहित्य में निश्चित रूप से, जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है उन , शब्दों के साथ हमारी भावनाओं (या जो हम दूसरों की भावनाओं को देखते हैं) का सीधा रिश्ता होना चाहिए तभी हम सृजनात्मक साहित्य की रचना कर सकते हैं। मनोवैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि भावनाओं में भाषा की भूमिका भावनाओं की गहराई से सम्बंधित होती है। पाठक के लिए कवि या साहित्याकार का महत्व उसकी निजी भावनाओं के कारण, उसके अपने जीवन के अनुभवों से पैदा हुए भावों के कारण नहीं है। यह दूसरी बात है कि काव्य रचना की क्रिया में अन्यों के भावों और अनुभूतियों के साथ, साहित्यकार के अपने भाव और अपनी अनुभूतियाँ भी एक इकाई में ढल जाती हैं । यह जरुरी नहीं है कि साहित्य रचना में केवल साहित्यकार के अपने भाव और अनुभूतियाँ ही उस सृजन क्रिया का उपकरण बनें। रचयिता का महत्व रचना करने की क्रिया की तीव्रता में है।लिखा हुआ शब्द हमारे आधुनिक समाजों में जितना निरीह और निष्कवच रहा है, उतना शायद कभी नहीं। बिना शब्द के साहित्य की परिकल्पना असंभव है-इस दृष्टि से वह अन्य कलाओं से इतना भिन्न है। एक साहित्यिक कृति अपनी ऊर्जा उस भाषा से प्राप्त करती है, जिसमें वह अपने को रूपायित करती है। भाषा का सामाजिक पहलू उसके संप्रेषण में है, वहाँ वह एक ‘माध्यम’ के रूप में प्रयुक्त होती है।विचारधाराओं के जलजलों में नई-पुरानी और युवा पीढ़ियाँ निरंतर अपनी कल्पनाओं के साथ आगे-पीछे सरकती रहती हैं। कभी पुरजोर दखलअन्दाजी कर कभी तटस्थ हो अपनी-अपनी रचनात्मक निजता की सुरक्षा करती साहित्यिक पीढ़ियाँ आस्थाओं की निधि में गुणा करके गुम हो जाती हैं।
मानवता की अंतर्दृष्टि से संबंधित होने के कारण संगीत और साहित्य में, काल्पनिक दुनिया रचने की क्षमता है, जो कि कई मामलों में वास्तविक जीवन के समान है और इससे संबंधित है, जिसके भीतर हम रहते हैं। साहित्य से हमारा भावनात्मक जुड़ाव इसी महत्वपूर्ण कारणों में से एक है दूसरों के साथ हमारी सहानुभूति और उनके साथ हमारे परस्पर क्रियाकलापों में संभावित घटनाओं पर हमारी निरंतर कल्पना और परिकल्पना का निर्माण होता रहता है । इसलिए, हम काल्पनिक दुनिया में विचरते हैं और खुद को उससे संलग्न कर साहित्य रचना करते हैं। जिस प्रकार माँ अपने शिशु की भावनाओं को स्वयं तक सम्प्रेषित कर लेती है वैसे ही साहित्य साहित्यकार की भावनाओं को स्वयं में समेट लेता है। हमारा साहित्य से वही रिश्ता होना चाहिए जो कि मां और शिशु के बीच एक तरह का सम्भाषण का रिश्ता होता है वही रिश्ता जो माता के साथ संवाद में शिशु को सकारात्मक रूप से संलग्न करता है।साहित्यकारों की रचनाएँ अक्सर व्यक्तिगत जीवन यात्रााओं की परिस्थितियों से भी गुँथी-पगी रहती हैं। यहीं से वह विविध अनुभूतियाँ संजोती है, अलौकिक और इस लोक के खुरदरे यथार्थ के संघर्ष की अन्तर्दृष्टि की वर्णमाला आँकती है।
साहित्यिक शब्द और भावनाएं साथ एक दूसरे से संरचनात्मक रूप से संबंधित ध्वनियों की एक स्ट्रिंग के युग्मन है। साहित्य ध्वन्यात्मक और वाक्यात्मक संरचनाओं का एक समग्र प्रस्तुतिकरण है जो अभिव्यक्ति को चरम पर पहुंचाता है।साहित्यकार निर्वैयक्तिक भावों का ग्रहण और आयास हीन अभिव्यंजना तभी कर सकता है जब वह व्यक्तित्व की परिधि से बाहर निकलकर एक महानतर अस्तित्व के प्रति अपने को समर्पित कर सके, अर्थात् जब उसका जीवन वर्तमान क्षण ही में परिमित न रहकर अतीत की परंपरा के वर्तमान क्षण में भी स्पंदित हो, जब उसकी अभिव्यक्ति केवल उसी की अभिव्यक्ति न हो जो जी रहा है, बल्कि उसकी भी जो पहले से जीवित है। साहित्य हमेशा भाव भाषा ,अनुभूतियों और शब्दों पर सवार होकर सत्य का विश्लेषण करता है यही कारण है कि आततायी सत्ताओं को हमेशा वह एक खतरे भरा अंदेशा जान पड़ता है। शब्द ऊर्जा का एक असीम स्त्रोत है यह स्रोत किसी बाहरी सत्ता में न होकर स्वयं शब्द के भीतर विद्यमान है। जो शब्द राजनीतिक सत्ताओं के समक्ष इतना निरीह और अवश दिखाई देता है, वही साहित्य में प्रवेश करते ही एक तरह की अज्ञात, असीमित ऊर्जा प्राप्त कर लेता है। पाठक के मन को वो ही रचनाएँ लुभाती हैं जिनमें युग्म-जीवन का आकर्षण आधार है, सामान्य पाठकों को इस कारण सबसे अधिक पंसद आती हैं कि उनकी स्वयं की अनुभूतियाँ उनसे अनुगुंजित होती हैं।प्रेषणीयता अब भी बुनियादी साहित्यिक मूल्य है और संप्रेषण साहित्यकार का बुनियादी काम, किंतु बदलती हुई परिस्थितियों में प्रेष्य वस्तु और प्रेषण के साधन दोनों बदल गए हैं।
साहित्यकार अपने शब्द और भावों से समाज में नए आत्मविश्वास और आत्मनियंत्रण का सन्देश सम्प्रेषित करता है वहीँ युवा पीढ़ी को नए रचनात्मक विन्यास, शिल्प और शैली की ओर अग्रसर करता है । साहित्य से उभरते जीवन्त तत्वों के प्रवाह को सर्जनात्मक पटल पर नित नए रूप में प्रस्तुत करने का काम साहित्यकार का धर्म है।शब्द के भीतर ईश्वर की गूंज है, जिसे इतिहास की सत्ताएँ, अनसुना कर देती हैं। और साहित्यकार अपने सृजन में दर्ज कर लेता है।

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ