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शिवसंकल्पमस्तु

 

सुशील कुमार शर्मा
गाडरवारा

 

 


यजुर्वेद संहिता का का मंत्र "तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु "अर्थात मेरे मन का संकल्प शिव हो शुभ हो कल्याणकारी हो। अर्थात शिव मन के शुभ विचारों ,एकाग्रता ,प्रसन्नता के अधिष्ठाता हैं संकल्पों के प्रतिक हैं। शिव के तत्व दर्शन को जो समझ जाता है जो उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतार लेता है वह आत्मोन्नति कर लक्ष्य पर पहुँच जाता है। शंकर सृजन से संहार तक जीवन से मृत्यु तक जीवन का विस्तारित प्रकाश हैं। शिव प्रकृति को प्राण देने वाली ऊर्जा है। शिव ने स्वयं को छोड़ कर सबको चाहा है। शिव आत्मबलिदानी हैं अपने भक्तों की एक छोटी इच्छा पूरी करने के लिए बड़े से बड़ा संकट लेने के लिए तैयार रहते हैं। शिव सत्य की किरण है जो अनादि अंधकारों की चीरती हुई हमारे हृदयस्थल को ज्ञान के अलोकों से प्रकाशित करती है।
सभी देवता किसी न किसी परिधि में बंधे हुए हैं कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ में कुछ लिप्सा कुछ अधिकारों में कुछ अहंकारों में लेकिन शिव ही सर्वमुक्त हैं ,अकिंचन हैं। अमृत छोड़ कर विष का पान शिव सामर्थ्य ही कर सकता है। रत्नों को छोड़ कर विषधारी नागों को सिर्फ शिव ही धारण कर सकते हैं। शिव राम के भी पूज्य हैं रावण के भी। शिव देवताओं से सम्मानित हैं तो असुरों के अधिष्ठाता हैं। शिव अनादि काल से अच्छाइयों एवं बुराइयों के बीच के सेतु रहे हैं। जहाँ एक तरफ परम शांति एवं शीतलता के प्रतीक चन्द्र को धारण करते हैं तो दूसरी ओर महा विनाशक विष को भी अपने कंठ में छुपाये हुए हैं ताकि मानवता का विनाश न हो। वो सौम्य से सौम्यतर भयंकर से भी महा भयंकर रौद्र रूप धारी हैं।
आज के परिवेश में जन्हा मनुष्य अपने चरित्र ,वाणी ,कर्म एवं संस्कारों को खो चुका है। अपनी शक्तियों का प्रयोग मानवता को विनिष्ट करने में कर रहा है शिव का चरित्र उसको सही दिशा दिखने के लिए सर्वथा प्रासंगिक है। शिव का चरित्र निजी सुख एवं भोगों से दूर उत्तरदायित्व का चरित्र है जो मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि देवताओं के लिए भी अनुकरणीय है। शिव का परिग्रह रूप शिक्षा देता है की शक्ति का प्रयोग धन वैभव एवं भोग सामग्रियों को जुटाने में नहीं वरन शोषित एवं दीनों की सेवा करने में होना चाहिए।
शिव शुद्ध ,पवित्र एवं निरपेक्ष हैं उनके प्रतीकों से उनके चरित्र की बारीकियों को समझना पड़ेगा। उनके मस्तिष्क पर चन्द्रमा के धारण करने का आशय पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित होना है।विष को कंठ में धारण करने का आशय संसार के सारे दुखो को खुद में समाहित कर लेना है। इस संसार में विचारों का विस्तृत मंथन होता है। इस मंथन से अमृत एवं विष दोनों निकलते हैं। अमृत को सभी पाना चाहते हैं लेकिन विष को कोई नहीं। शिव का व्यक्तित्व ही उस विष से संसार की रक्षा कर सकता है। शिव गंगा धरी हैं और गंगा समस्त पाप नाशनी कही जाती हैं इसका आशय है की अज्ञान से ही इस विश्व में समस्त पाप कर्म होते हैं शिव उस अज्ञान को मिटने वाली ज्ञान की गंगा के उत्सर्जक हैं। शिव का तीसरा नेत्र आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है हमारी इन्द्रिय हमें अध्यात्मिक क्षेत्र की परिधि से बाहर रखती हैं। वो हमें लौकिकजगत के जाल में उलझाये रहती हैं। शिव का तीसरा नेत्र हमें इन एन्द्रिक जाल से निकाल कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता हैं। मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु एम् भीरु बना दिया है। मनुष्य साधनों के बिना जीं की कल्पना नहीं कर सकता है। अगर कोई उसकी विचारधारा को चुनौती देता है तो वह हिंसक हो जाता है। शिव संकल्प का सन्देश है अगर मन में प्रेम है तो जानवर ,विषधर ,हिंसक पशु। दलित शोषित सब आपसे प्रेम करने लगते हैं। शिव हमें वह भाव देते हैं जिनसे सेवा एवं संस्कार की भावनायें उत्पन्न होती हैं जिनसे हमारा अहंकार गलता है एवं जिनसे हमारा आत्मिक सौंदर्य निखरता है।
शिव मानव जीवन के उन गुणों का प्रतीक है जिनके बिना मनुष्य अत्यंत छुद्र प्रतीत होता है। वह पशु तुल्य हो जाता है। शिव का चरित्र मनुष्य में उस उर्जा का संचरण करता है जो उसे पशु से मनुष्य ,मनुष्य से देव एवं देव से महादेव बनने के लिए प्रेरित करता है। शिव संकल्प हमें भोग से योग ,अज्ञान से ज्ञान एवं तिमिर से प्रकाश की ओर ले जाता है। शिव हमें सौन्दर्य के उस उच्चतम शिखर पर ले जातें हैं जो सच्चा है ,मंगलमय है ,एवं कल्याणकारी है। जो हमें परिस्कृत चरित्र एवं चिंतन प्रदान करता है। शिव चरित्र मानवीय जीवन के उच्चतम आदर्शों की पराकाष्ठा है। महाशिवरात्रि विचार मंथन का पर्व है। यह पर्व हमें शून्य से अनंत की और ले जाने वाला वरव है जो हमारे व्यक्तित्व को छुद्रता से विराटता प्रदान करता है।

 

 

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