सुशील कुमार शर्मा
( वरिष्ठ अध्यापक)
"बस हमरो गल्लो भर सस्तो हे बाकीं सभै चीजें महंगी हो रई हैं।"कृषि प्रधान देश के अन्नदाता की आँखों के आंसू तंत्र और राजनीति को भले ही न दिख रहे हों लेकिन वो अनवरत बह रहे हैं। मेरे गांव के छोटे किसान परमू की वो भरी आँखे मैं भुला नहीं पा रहूँ। "सोयाबीन चौपट हो गई ,मूंग मंगो बन गई ,धान की हालत पतरी है ,अब तो मरवो और बचो है तो बा मौत भी नै आ रई है। "हालांकि उसके उत्तर से मुस्कराहट मेरे चहरे पर आ गई लेकिन उसकी पीड़ा शब्दों पर सवार हो कर अंदर तक तैर गई।
इतने सालों के बाद भी भारत के अन्नदाता असहाय है दूसरों पर आश्रित है। प्रकृति,राजनीति,तंत्र से अकेला लड़ता हुआ बेबस ,असहाय ,घुटता हुआ ,मौत के मुंह में जाने को विवश। उसकी दशा देख कर माधव शुक्ल मनोज की कुछ पंक्तिया याद आ गईं ।
सूख गओ ककरी को जउआ,छाती में उग गओ अकौआ।
सर के ऊपर आज विपत को बोलो कारो कौआ।
ऐसो लगे समय ने रख दओ धुनकी रूई पे पौआ।
आज भी आज़ादी के 68 साल बाद भी अधिकांश भारतीय कृषि इन्द्र देव के सहारे ही चलती है। इंद्र देवता के रूठ जाने पर सूखा ,कीमतों में वृद्धि ,कर्ज का अप्रत्याशित बोझ ,बैंकों के चक्कर,बिचोलियों एवं साहूकारों के घेरे में फँस कर छोटा किसान या तो जमीन बेचनें पर मजबूर है या आत्महत्या की ओर अग्रसर है।
आधिकारिक आंकलनो में प्रति 30 मिनिट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है ,इसमें छोटे एवं मझोले किसान हैं जो आर्थिक तंगी की सूरत में अपनी जान गँवा रहे हैं। अगर आत्महत्या के मामलों की सघन जाँच की जावे तो ऐसे किसानों की संख्या ज्यादा निकलेगी जो मजदूर एवं शोषित वर्ग के हैं एवं जिनका जमीन पर स्वामित्व तो है लेकिन उनकी जमीन किसी साहूकार एवं बड़े किसान के पास गिरवी रखी है एवं वो बटहार का काम करते है।
सरकारों के हर प्रयास के बाद भी आखिर छोटे एवं मँझोले किसानो की दशा और दिशा में अंतर क्यों नहीं आ रहा है ?यह एक अनुत्तरित प्रश्न हम सभी के जेहन में उभरता है। इसका अगर विश्लेषण किया जाये तो प्रथमदृष्टया है बात आती है की सरकारी योजनाओं का जमीनी क्रियान्वयन तंत्र द्वारा नहीं किया जा रहा है।
आज भी छोटे एवं सीमांत किसान पुराने ढर्रे की ही खेती कर रहे है। उन्हें उन्नत एवं परम्परागत तरीके को एक साथ जोड़ कर खेती सीखने की आवश्यकता है इसके लिए वृहद स्तर पर अभियान चलने की जरूरत है एक ऐसा अभियान जो छोटे एवं सीमांत किसानो को दृष्टिगत रखते हुए क्रियान्वित किया जावे। अक्सर देखा जाता है की किसान अपने खेत की मृदा का परिक्षण नहीं कराते हैं एवं न हीं उस मिटटी के अनुसार फसल बोते हैं जिससे पैदावार में काफी गिरावट देखी गई है सरकारों एवं तंत्र को एक व्यापक कार्यक्रम का इस उद्देश्य से जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए।
कृषि विपणन व्यवस्था को सीमांत किसानों के लिए उपयोगी बनाने की आवश्यकता ताकि किसान बिचोलियों की मार से बच सके। लघु एवं सीमांत किसानों को सब्जी एवं फल उत्पादन के साथ साथ टपक सिचांई प्रबंधन का समावेशीकरण कर कृषि को प्रोन्नत करने के प्रशिक्षण की आवश्यकता है। पर्याप्त जल संसाधन होने के बाद भी किसानो के खेत उसकी क्यों रह जाते है ?इसका मुख्या कारण जल का उचित प्रबंधन का अभाव है। जल प्रवंधन जैसे महत्वपूर्ण विषय पर आज तक सरकारें कोई ठोस कानून एवं योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं कर पाईं है ये चिंता का विषय है।किसानों को अंतर्वर्ती फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहन की जरूरत है ताकि मुख्य फसल के ख़राब होने पर अंतरवर्ती फसल कुछ भरपाई कर सके।
2006 में बनी स्वामीनाथन कमेटी ने सिफारिश की थी की न्यूनतम समर्थन मूल्य ,बाजार मूल्य का 50 % से अधिक होना चाहिए एवं इस 50 %की वृद्धि को किसान का मेहनताना माना जाना चाहिए। लेकिन स्थिति बिलकुल अलग है न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं बाजार मूल्य में ज्यादा अंतर नहीं है इस कारण किसान को लाभांश नहीं मिल पा रहा है।
लघु किसानों की सबसे बड़ी परेशानी है पूँजी या लागत का न होना ,अपने घरेलु जरूरतों से लेकर कृषि की लागत तक उन्हें पैसा चाहिए एवं इसके लिए वो साहूकार एवं किसान क्रेडिट कार्ड पर निर्भर रहतें हैं। किसान क्रेडिट कार्ड से चूँकि सरलता से पैसा मिल जाता है अतः इसका उपयोग वो कृषि की जगह अपने सामाजिक एवं घरेलु जरूरतों की पूर्ती में लगा देता है एवं पैसा खर्च होने के बाद किसानी की लागत के लिए साहूकारों के चुंगल में फंस जाता है। 1998 से लेकर 2009 तक करीब 3 करोड़ से ऊपर किसान क्रेडिट कार्ड किसानों को जारी किया जा चुके हैं एवं करीब 1 लाख 97 हज़ार करोड़ रूपये इन क्रेडिट कार्ड के द्वारा किसानो के पास कृषि संवर्धन के लिए पहुँच चूका है ,लेकिन सरकार के पास इस बात का कोई सही तथ्यात्मक आंकड़ा नहीं है की इतनी भारी राशि का कितना भाग कृषि लागत के रूप में प्रयोग किया गया है। सरकारों को इस बात का नियंत्रण रखना चाहिए की किसान क्रेडिट कार्ड के पैसों का उपयोग लघु किसान खेती की लागत के रूप में ही करें ताकि वो अधिक पैदावार लेकर खुद पूँजी खड़ी कर सके।
सभी पार्टियां चुनावी वादों में किसानों के हितों को सर्वोपरि बताती हैं लेकिन फसल की बर्बादी पर घड़याली आंसू बहा कर किसानों को भुगतने के लिए अकेला छोड़ देती हैं जबकि पूरे भारत की विधान सभाओं एवं संसद में अधिकांश प्रतिनिधि किसान परिवारों से हैं। किसानो की आर्थिक एवं सामाजिक मांगों को लेकर कई किसान मोर्चे एवं आंदोलन खड़े हुए लेकिन विडंबना ये है की इन सभी आंदोलनों का नेतृत्व समृद्धशाली किसानों द्वारा किया जाता रहा है ,जिस शोषित किसान के हितों के लिए ये आंदोलन हुएं हैं वो बेचारा भीड़ में गुम हो जाता है।एवं उसके हित राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ जाते हैं।
देश की कुल आर्थिक व्यवस्था में किसानों का कितना योगदान है एवं प्रतिफल के रूप में उन्हें कितना और क्या मिल रहा है अगर सरकारें इस पर सर्वेक्षण करलें तो एक तथ्य हमारे सामने आएगा की देश की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले अन्नदाता के हिस्से में सिर्फ आंसू और कराहें ही आ रहें हैं।
1991 के बाद से विश्व बैंक के निर्देशों पर भारतीय सरकारों ने अनुदान (सब्सिडी ) को काम करने एवं उपादानों को मंहगा करने की की नीति अपनायी ,दूसरी और विश्व व्यापार संघठन के खुले बाजार एवं खुले आयात की नीति के तहत कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसान की कमर तोड़ दी है। बढ़ती कृषि लागत एवं कृषि उपज के घटते दामों के बीच भारतीय किसान पिस रहा है। इस विकट स्थिति से मुंह मोड़ कर भारतीय सरकारें वैश्वीकरण से प्रभावित कथित सुधारों को लागू करने पर कटिबद्ध दिखाई दे रहीं हैं।नए बीज कानून का क्रियान्वयन करना ,हदबंदी कानून को शिथिल करना ,बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विपणन अधिकार देना ,कांट्रेक्ट खेती की खुली छूट ,खतरनाक तकनीकियों से खेती को अधिक लाभकारी बनाने की जिजीविषा लघु एवं सीमांत किसानों को आत्महत्याओं की ओर धकेल रही है। अगर खेती को पूँजी निर्माण का जरिया बनाया जाता है एवं प्रकृति विरोधी तकनीकों का उपयोग कर किसानों एवं मजदूरों से रोजगार छीना जाता है एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शिकंजे अगर भारतीय खेती पर कसे जातें हैं तो भारतीय लघु किसान भविष्य में निश्चित ही गहन विपत्ति से गुजरने वालें हैं।
भारत में विकास दर बढ़ाने का मूलमंत्र कृषि का विस्तार एवं विकास ही है ,लेकिन यह विकास लघु एवं सीमांत किसानों के हलों से निकलना चाहिए न की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पूंजी निर्माण करने वाली खतरनाक तकनीकों से होना चाहिए। कृषि प्रक्रिया को अधिक सरल एवं प्रभावशाली व उन्नत बनाने के लिए एवं लघु किसानों के हितों को ध्यान में रख कर ठोस योजनाओं का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित होना चाहिए। तभी भारत का किसान एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी एवं गरीब किसान के आंसू मुस्कान में बदल सकेंगे किन्तु दिल्ली अभी दूर है।
धान की बाली सूख गई है ,चना चर गई इल्ली।
सांटो पर गओ सींक सो पतरो , सो रई है जा नई दिल्ली।
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