सुशील शर्मा
सुनहरे सपनों का मेरा शहर सो गया।
अजनबी सा होकर कहीं खो गया।
धूप सूरज की अब रूकती नहीं।
फूलों सा जिस्म पत्थर का हो गया।
बदहवास सूरतें भागती है रहती है यहाँ।
हर चेहरा अजनबी इस शहर का हो गया।
कभी बुज़ुर्गों की शान हुआ करता था ये शहर।
आज तन्हा अकेला इन्हें कौन कर गया।
मरती नदी एक सवाल मुझसे कर गई।
क्यों संगदिल सा होकर ये शहर मर गया।
दरख़तों पर आजकल पंछी नहीं दिखते।
कौन इन परिंदों का गुनहगार बन गया।
मुद्दतों से खुद की पहचान कर रहा हूँ मैं।
आज कौन मुझे मेरे सामने खड़ा कर गया।
तमाम शहर कभी मेरी जद में रहता था।
आज मेरा घर ही मुझे परेशान कर गया।
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