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स्वाभिमान

 

सुशील शर्मा

 

 

लोभ परस्ती की दुनिया
में स्वाभिमान मरते देखा।
स्वार्थसिद्धि के बाज़ारों
में लोगों को बिकते देखा।

 

नहीं उबलता खून हमारा
अन्यायी की घातों से।
खुद को बहलाते रहते हैं
स्वाभिमान की बातों से।



अभिमानी का मूलमंत्र खुद
को प्रतिस्थापित करना रहता।
कुटिल कुचालें चल कर सच
को विस्थापित करना रहता।



स्वाभिमान को अक्सर
हमने अहंकार बनते देखा।
सम्मानों के उच्च मंच
पर स्वाभिमान बिकते देखा।



समाजों के सरोकार अब
सिमटे स्वार्थ की गलियों में।
राष्ट्र भावना मरती देखी
जीवन की रंगलियों में।



स्वाभिमान की परिभाषाएं
अब शब्दों तक सीमित हैं।
स्वाभिमान का जीवन दर्शन
अब कागज पर जीवित है।



स्वाभिमान जब जगता है
तो आत्म अवलम्बन आता है।
परिवर्तन के अनुक्रम का
संग स्वाबलंबन पा जाता है।



चलो निहारें स्वाभिमान
पथ यही सत्य संकल्प है।
आत्मसम्मान से जीने का
न कोई दूजा विकल्प है।

 

 

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