सुशील शर्मा
चीखती आरी
पेड़ पर कुल्हाड़ी
उजड़ा वन।
वन का महोत्सव
भाषण में रक्षण।
कटते वन
फैलती सभ्यताएं
घुटती सांसे।
सिमटता अस्तित्व
सदियों का सदमा।
मरते पक्षी
जहर होती हवा
धुंध का राज
धूल की गिरफ्त में
रौशनी का शहर।
पंक्ति में लगा
सोचता है आदमी
बाप न भैया
न बहिन न मैया
सब है रुपइया।
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