सुशील कुमार शर्मा
वसंत ऋतू उत्सव ,आनंद ,उमंग ,उल्लास और चेतना की द्योतक है। कवियों ने
वसंत को ऋतुओं का राजा कहा है और है भी हर सुमन में संकेत होता है मिलन
और विरह का साहित्य वसंत के वर्णन से सराबोर है "कलिन में कुंजन में
केलिन में कानन में ,',बगन में बागन में बगरयो बसंत है '' | बसंत मधु ऋतू
है। कालिदास ने ऋतू -संहार में बसंत का जैसा वर्णन किया है वैसा कहीं
नहीं दिखाई देता --
द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम ,
स्त्रीय सकामा: पवन: सुगंधी:|
सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:,
सर्व प्रिये चारुतरं वसंते ||
अलका! यह नाम लेते ही नयनों के सामने एक चित्र उभरता है उस भावमयी कमनीय
भूमि का जहाँ चिर-सुषमा की वंशी गूंजती रहती हो, जहाँ के सरोवरों में
सोने के कमल खिलते हों- जहाँ मृण-तरू पात चिर वसंत की छवि में नहा रहे
हों। अपार यौवन, अपार सुख, अपार विलास की इस रंगस्थली ने महाकवि कालिदास
की कल्पना को अनुप्रमाणित किया। उनकी रस प्राण वाणी में फूट पडी
विरही-यक्ष की करुण गाथा।
वसंत तो सृजन का आधार बताया गया है। सृष्टि के दर्शन का सिद्धान्त बन कर
कुसुमाकर ही स्थापित होता है। यही कारण है कि सीजन और काव्य के मूल में
तत्व के रूप में इसकी स्थापना दी गयी है। सृष्टि की आदि श्रुति ऋग्वेद की
अनेक ऋचाओं में रचनाओं से लेकर वर्तमान साहित्यकारों ने भी अपनी
सौंदर्य-चेतना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति की ही शरण ली है। शस्य
श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्य, कोकिल के मधुर गुंजन से
झूमती सघन अमराइयों में गुनगुनाते भौरों पर थिरकती सूर्य की रशिमयां,
कामदेव की ऋतुराज 'बसंत' का सजीव रूप कवियों की उदात्त कल्पना से मुखरित
हो उठता है।
मालिक मोहम्मद जायसी का नागमती विरह बसंत की मादकता को और भी उद्दीप्त
करता है। नागमती उपवनों के पेड़ों के नीचे रात भर रोती फिरती है। इस दशा
में पशु, पक्षी, पेड़, पल्लव जो कुछ सामने आता है उसे वह अपना दुखड़ा
सुनाती है। वह पुण्यदशा धन्य है जिसमें ये सब अपने सगे लगते हैं और यह
जान पड़ने लगता है कि इन्हें दु:ख सुनाने से भी जी हल्का होगा। सब जीवों
का शिरोमणि मनुष्य और मनुष्यों का अधीश्वर राजा! उसकी पटरानी, जो कभी
बड़े-बड़े राजाओं और सरदारों की बातों की ओर भी ध्यान न देती थी, वह
पक्षियों से अपने हृदय की वेदना कह रही है, उनके सामने अपना हृदय खोल रही
है।
प्रियतम के बिना बसंत का आगमन अत्यंत त्रासदायक होता है। विरह-दग्ध हृदय
में बसंत में खिलते पलाश के फूल अत्यंत कुटिल मालूम होते हैं तथा गुलाब
की खिलती पंखुड़ियाँ विरह-वेदना के संताप को और अधिक बढ़ा देती हैं।
महाकवि विद्यापति कहते है -
मलय पवन बह, बसंत विजय कह,भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।
ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला।अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि।
तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे।
पलाश गुलाब, अनार और कचनार फूल रहे हैं। खेतों में पीली सरसों भी नहीं
फूली समा रही है। बन उपवन में कोयलें कूक रही हैं। चारों ओर काम के
नगाड़े बज रहे हैं। किंतु प्रियतम परदेश में बसे हैं। दुष्ट बसंत सिर पर
आ पहुँचा है अब बेचारी विरहिणी किसका सहारा ले। कवि श्री हरिश्चंद्र के
शब्दों में-
हरिश्चंद्र कोयलें कुहुकी फिरै बन बन बाजै लाग्यों फेरिगन काम को नगारो हाये
क्रूर प्रान प्यारो काको लीजै सहारो अब आयो फेरि सिर पै बसंत बज्र मारो हाय।
कवि श्री पद्माकर की विरह विदग्धा विरहिणी गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं-
ऊधौ यह सूधौ सो संदेसो कहिदो जो भलो,
हरि सो हमारे हयाँ न फूले बन कुंज हैं।
किंशुक, गुलाब कचनार और अनानर की,
डालन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रगतिवादी\ प्रगतिशील \ जनवादी कविता के
अग्रदूत माने जाते हैं। उन्होंने अपनी कविता जूही की कली में विरही बसंत
का वर्णन करते हुए लिखा है।
वासन्ती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आई याद बिछुड़ने से मिलन की वह मधुर बात,
आई याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आई याद कान्ता की कम्पित कमनीय गात,
राजस्थानी लोक संगीत में भी बसंत के विरह का बड़ा मार्मिक वर्णन मिलता है।
अपने राग-विराग, घृणा-प्रेम, दुःख की जिन भावनाओं को नारी स्पष्ट नहीं कह
पाती, उन्हें उसने लोकगीतों के द्वारा गा-गाकर सुना दिया है। लोकगीतों
में उसने अपने अन्तःस्थल को खोल कर रख दिया है, जिसमें न वह कहीं रुकी, न
झिझकी और न ही शर्मायी। विरहिणी ने अपनी विरह वेदना को कुरुजाँ पक्षी से
प्रियतम को संदेश भिजवाना चाहा, जिसमें कितनी करुणा और मिलन की ललक
व्यक्त है -
''सूती थी रंग महल में, सूती ने आयो रे जंजाळ,
सुपना रे बैरी झूठो क्यों आयो रे।
कुरजां तू म्हारी बैनडी ए, सांभळ म्हारी बात,
ढोला तणे ओळमां भेजूं थारे लार।
कुरजां ए म्हारो भंवर मिला देनी ए।''
बसंत काव्य में विरह वेदना को द्विगुणित करता है वह काव्य के सौंदर्य को
चमत्कारिक करता है। हमें वसंत को जीवन में उतारना ही होगा तभी मन प्राण
स्पंदित होंगे तभी अंदर का कलुष मिटेगा। इस अनिमेष सृष्टि से जुडाव होगा
तो मासूमियत लौटेगी और प्रेम और सहयोग पनपेगा। बसंत का विरह भी आकर्षक
होता है।
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY