सुशील शर्मा
कोहरे की रजाई ओढ़े धूप,
तेरे आने का शगुन देती है।
खिड़की से झांकता सूरज,
मुझे मेरे होने का अहसास कराता है।
दिन बीत जाता है किसी,
अमीर के अरमानों की तरह।
रात चंद की बिंदी लिए मुस्काती है।
चीखती पीड़ा जब दिल को चीर कर,
उतरती है ओठों पर।
शब्द अंगार बन,
जला देते हैं अस्तित्व को।
वक्त के पैबंद से झांकती ख़ुशी,
दिल में जाने का रास्ता ढूंढती है।
लेकिन जख्मों के जखीरे।
रोक देते हैं उस नन्ही ख़ुशी को।
यादों के हर सिंगार लिए ,
सपने अपने से हो जाते हैं।
कुछ ख्वाहिशें टूट कर बिखर गईं हैं ,
हवा में खुश्बुओं की मानिंद।
एक तितली ठहर कर ,
मेरे कान में कुछ कह गई।
मैं पत्थर सा खड़ा रह गया ,
वह पानी सी गुजर गई।
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