सुशील शर्मा
पढ़ना मानव सभ्यता की सबसे पुरानी आदतों में से एक है और यह सभी समय के
महानतम व्यक्तित्वों का जुनून रहा है। पहले पढ़ने के लिए दस्तावेजी
स्रोतों में सिर्फ एक पांडुलिपि थी, हालांकि, यह केवल अभिजात वर्ग तक ही
सीमित थी। बाद में, गुटेनबर्ग प्रिंटिंग प्रेस के आने से मुद्रित सामग्री
सभी को उपलब्ध होने लगी। गुटेनबर्ग प्रिंटिंग प्रेस शिक्षित समाज में
भारी बदलाव का कारण बना। यह पढ़ने की प्रक्रिया समाज के लिए मानवता की
आगे की यात्रा के लिए निश्चित रूप से एक बड़ी छलांग थी। इंटरनेट के उदय
ने पढ़ने की संस्कृति में एक असाधारण परिवर्तन किया है लोगों के पढ़ने के
व्यवहार में इस संस्कृति का अस्तित्व पूरी तरह या आंशिक रूप से बना है।
वर्तमान में, पढ़ना अब प्रिंट रीडिंग तक सीमित नहीं है। इंटरनेट क्रांति
में वेब साइट्स, ई-पुस्तकों, ई-पत्रिकाओं, ई-पेपर, ई-मेल, चर्चा बोर्ड,
चैट रूम, इंस्टेंट मैसेजिंग, ब्लॉग, विकी, और अन्य मल्टीमीडिया दस्तावेज़
अब संभावित पाठक घर पर उसके मस्तिष्क पर पूर्ण प्रभुत्व जमा चुके हैं अब
पाठक अपने टर्मिनल का उपयोग करते हुए पूरे वेब से ऑनलाइन जानकारी का
उपयोग और ब्राउज़ कर सकते हैं।संचार माध्यमों के सिद्धांतों और उनको
समझने का कार्य सबसे पहले साहित्य जगत के चिंतकों-विचारकों ने ही शुरू
किया। भाषा, संचार की प्राथमिक तकनीकों में सबसे महत्त्वपूर्ण रही है,
यही कारण है कि आज भी साहित्य,भाषा और संचार के बीच सीधा और साफ संबंध
दिखाई देता है।
एक तेजी से बढ़ते हुए नेटवर्क वातावरण में, नई पीढ़ी के पाठकों ने
धीरे-धीरे पढ़ने के नए व्यवहारों का विकास किया और अपने पारंपरिक रीडिंग
प्रथाओं को तेजी से बदल दिया है । पाठकों का मानना है कि इंटरनेट सर्फिंग
इंटरैक्टिव पठन, सतही पढ़ना और व्यापक रीडिंग बढ़ाता है और उसी दर पर
अनुक्रमिक पढ़ने, केंद्रित पढ़ाई और गहराई से पढ़ने में कमी आती है।
केंद्रित और गहराई से पढ़ने में कमी खतरनाक कारक है। यह इंगित करता है कि
ऑनलाइन पाठकों को गहराई और केंद्रित पढ़ने के लिए प्रिंट स्रोत का उपयोग
करना है। शिक्षा के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के योग्य होने के लिए
जानकारी और ज्ञान की वास्तविक खपत के लिए पढ़ने की ये प्रथा बहुत जरूरी
है।
हिंदी के विकास में इंटरनेट की भूमिका -
कम्प्यूटर और इंटरनेट के आने के बाद कम्युनिकेशन में मूलगामी बदलाव आया
है।राजनीति से लेकर संस्कृति तक सब क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन घटित
हुए हैं। विकसित देशों में भी हिंदी को लेकर ललक बढ़ रही है। कारण यह है
कि किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी या देश को अपना उत्पाद बेचने के लिए आम
आदमी तक पहुंचना होगा और इसके लिए जनभाषा ही सबसे सशक्त माध्यम है। यही
कारक हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहायक सिद्ध हो रहा है। आज पचास से अधिक
देशों के पांच सौ से अधिक केंद्रों पर हिंदी पढ़ाई जाती है। कई केंद्रों
पर स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी के अध्ययन-अध्यापन के साथ ही पीएचडी करने
की सुविधा उपलब्ध है। विश्व के लगभग एक सौ चालीस देशों तक हिंदी किसी न
किसी रूप में पहुंच चुकी है। आज हिंदी के माध्यम से संपूर्ण विश्व भारतीय
संस्कृति को आत्मसात कर रहा है।भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर के
वैज्ञानिकों ने इस्की-8 (ISCII- Indian Standard Code for Information
Interchange) कोडिंग प्रणाली विकास किय़ा। इस प्रणाली को विकसित करते समय
वैज्ञानिकों ने इस बात का ध्यान रखा कि हिंदी के लिए निर्धारित की जाने
वाली कोडिंग प्रणाली में रोमनलिपि के समावेश की भी सुविधा हो और रोमनलिपि
के लिए विकसित क्वेर्टी (QWERTY) की-बोर्ड में ही हिंदी में टाइप करने की
सुविधा हो। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए वैज्ञानिकों ने अलग से
कोई की-बोर्ड की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई।सभी ऑनलाइन औजार यूँ तो
प्रत्यक्ष से कोई बड़ी भूमिका में न रहें हों परन्तु हिंदी के समग्र विकास
में इनकी सहायता से इंकार नही किया जा सकता है।
भारत जैसे देश में जहाँ महज 10 प्रतिशत से भी कम लोग अंग्रेजी का ज्ञान
रखते हैं, वहां हिंदी के इस स्वरूप की आवश्यकता बढ़ जाती है. हिंदी के इसी
महत्व पर मशहूर विचारक सच्चिदानन्द सिन्हा ने लिखा है – “ भाषा जो
प्रतीकों का समुच्चय होती है, संस्कृतियों के संकलन और सम्प्रेषण का सबसे
सरल माध्यम भी होती है. और सम्प्रेषण आम बोलचाल की भाषाओँ से भी होता है
– बल्कि अधिक सशक्त रूप से”.यहाँ सम्प्रेषण के एक और सशक्त माध्यम “वेब
मीडिया” का भी उल्लेख किया जा सकता है।
हिंदी साहित्य के प्रसार में इंटरनेट बहुत अहम-
इंटरनेट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 20 प्रतिशत भारतीय उपभोक्ता हिंदी
में इंटरनेट सर्फिंग को पसंद करते हैं। इंटरनेट पर हिंदी ब्लागरों की
संख्या एक लाख से भी ऊपर पहुंच गई है। आज इंटरनेट पर हिंदी साहित्य से
संबंधित लगभग 70 ई-पत्रिकाएं हिंदी में उपलब्ध हैं। 15 से अधिक हिंदी के
सर्च इंजन हैं, जो किसी भी वेबसाइट का मिनटों में हिंदी अनुवाद उपलब्ध
करा सकते हैं। भारत के लगभग सभी सरकारी संगठनों की वेबसाइट हिंदी यूनिकोड
में उपलब्ध हैं। भारत के लगभग सभी हिंदी दैनिक समाचार पत्र और पत्रिकाएं
हिंदी यूनिकोड में उपलब्ध हैं। सबसे उत्साहजनक बात है कि सोशल मीडिया-
फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्वीटर आदि ने भी हिंदी साहित्य को हाथो हाथ लिया है।
रॉबिन मनसैल ने लिखा कि इंटरनेट पर हिंदी साहित्य सामग्री मूलत: दो कोटि
में आती है ,पहली कोटि उस साहित्य की है जो उत्सवधर्मी है और इंटरनेट को
महिमामंडित करता है दूसरी कोटि में वह साहित्य आता है जो पलायनवादी है
,ये लोग इंटरनेट की किसी भी किस्म की सकारात्मक भूमिका नहीं देखते।
इंटरनेट अध्ययन के क्षेत्र में ये दोनों कोटियां खूब फल फूल रही हैं
।इंटरनेट पर हिंदी साहित्य का संसार भी काफी व्यापक हो गया है। एक आकलन
के अनुसार साहित्यिक हिंदी वेबपन्नों की संख्या करोड का कांटा छू रही
है।अभी भी यह एक यक्ष प्रश्न है कि हिंदी के मुख्यधारा के लेखक इंटरनेटीय
माध्यमों को अपनी अभिव्यक्ति को दुनिया तक पहुंचाने का प्रमुख माध्यम बना
पाए हैं? क्या ये अपनी नई और अनछपी रचनाओं को सबसे पहले इंटरनेट पर
सक्रिय पाठकों तक पहुंचा रहे हैं?हंस के संपादक और प्रख्यात साहित्यकार
राजेंद्र यादव कहते हैं 'जो गंभीरता या एकाग्रता किताब पढ़ने में होती है
वह मुझे लगता है कि इंटरनेट पर नहीं होती, उस तरह की ग्रहणशीलता भी
इंटरनेट पर नहीं बन पाती, वहां सूचनात्मकता ज़्यादा है.'
इंटरनेट का महत्व इन लेखक-कवियों को समझ में तो आ गया है लेकिन पारंपरिक
मीडिया में छपने-पहुंचने का मोह अभी कम नहीं हुआ है। मुख्यधारा के ऐसे
बहुत कम ही लेखक हैं जो इंटरनेट को पहला माध्यम मानते रहे हैं और आज वे
मुख्यधारा में अपना एक खास मकाम बना चुके हैं। यह बात भी गौर करने वाली
है कि मुख्यधारा के जो साहित्यकार इंटरनेट पर हाल ही में सक्रिय हुए हैं,
वे अपनी पुरानी रचनाओं को इंटरनेट पर ठेलकर आभासी दुनिया के भाषाई माहौल
को समकालीनता से दूर कर रहे हैं। पुराने एवं बुजुर्ग लेखक इस बात से
बेखबर हैं कि इंटरनेट पर 25 से 40 वर्ष के युवाओं की संख्या सबसे अधिक
है। इस वर्ग की अपनी भाषा है। अपनी समझ है। यदि लेखन इनकी भाषा में इनकी
समझ के स्तर से अपनी बात नहीं रखता तो उन तक पहुंचने की संभावना बेहद कम
है।
हिंदी साहित्य के प्रति बढ़ता रुझान नई-नई वेबसाइटों को तो सामने ला रहा
है फिर भी सामग्री गंभीर नहीं और स्तर पर भी पूरा ध्यान अभी नहीं दिया जा
रहा। आज मीडिया बाजारोन्मुख होता चला गया। उसमें से जन-सरोकार गायब हो
रहे हैं , बौद्धिक तेजस्विता क्षीण हुई और भाषा भी चलताऊ होती चली गई।
भाषा के प्रति प्रेम और उसे बरतने के लिए ज़रूरी गंभीरता भी ख़त्म होती
चली गई। इस प्रवृत्ति का असर मीडिया के पठन-पाठन पर भी पड़ा। उसमें भाषा
का महत्व कम कर दिया गया। तकनीक का प्रभाव बढ़ा तो उसने भी भाषा के महत्व
को कम करना शुरू कर दिया।फिलहाल इंटरनेट आधारित माध्यम अपने प्रयोगशीलता
के दौर से गुजर रहा है। इसीलिए इन माध्यमों पर निजता की अभिव्यक्ति का
बोलबाला है।यह कुछ इसी तरह है जैसे पहले-पहल किसी ने कागज़ पर फाउंटेन
पेन से कुछ लिखा हो और लागों ने उसे जादू की संज्ञा दी हो।पर आज यह एक
सामान्य काम ही है। वैसे ही इंटरनेट तकनीक और माध्यम से जुड़ाव भर उसे
वैकल्पिक मीडिया नहीं बना सकता जब तक कि आपकी सोच,नजरिया और दर्शन
वैकल्पिक न हों।चलिए कुछ ज्यादा न माने तो भी इंटरनेट का इतना अहसान तो
मानना पड़ेगा कि आज इंटरनेट के युग में हमारी भारतीय भाषाओं का जो साहित्य
पुस्तकालयों की अलमारियों में बंद पड़े थे, वे सभी विश्व स्तर पर इंटरनेट
के माध्यम से पाठकों के सामने आ चुके हैं।
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