पिजड़े में कैद,
बचपन से वो,
दुर्भाग्यवस,
एक परिंदा ।
कोसता भाग्य,
सोचता आजादी,
सपना था कभी,
मैं उडूँ आकाश ।
नापूँ दुनिया,
कैसी दिखती,
नभ से जमीन,
हरी या वीरान ।
एक मौका मिला,
सरपट फौरन उड़ा,
घंटों उड़ता गया,
भूख से बेहाल ।
चारे की आज़ादी,
पिजड़े में पेट बंद,
वापस लायी भूख,
भूला फिर उड़ान ।।
सुनील मिश्रा "साँझ"
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY