Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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एक परिंदा

 

पिजड़े में कैद,
बचपन से वो,
दुर्भाग्यवस,
एक परिंदा ।

 

 

कोसता भाग्य,
सोचता आजादी,
सपना था कभी,
मैं उडूँ आकाश ।

 

 

नापूँ दुनिया,
कैसी दिखती,
नभ से जमीन,
हरी या वीरान ।

 

 

एक मौका मिला,
सरपट फौरन उड़ा,
घंटों उड़ता गया,
भूख से बेहाल ।

 

 

चारे की आज़ादी,
पिजड़े में पेट बंद,
वापस लायी भूख,
भूला फिर उड़ान ।।

 

सुनील मिश्रा "साँझ"

 

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