रात गुप अंधियारी,
चाँद बादल में छिपा,
सितारे गुमसुम,
मैं तकता अँधियारा !
बारिश की हल्की बूँदें,
मेरे सर को सहलाती,
मैं खोया अतीत में,
फुसलाता ख़ुद को !
सहजता रात की,
माने समझाती है,
तुम भी सो जाओ,
कहा मानो मेरा !
एक अतीत मेरा,
मेरी परछाई सा,
अट्हास करती,
मेरी ही वेदनाएँ !
मैं रहा खोया,
मानो कोई स्वपन,
खुली आँखों से देखता,
माँ ने आवाज़ दी !
मैरा सपना टूटा,
मैं जैसे ख़ुद में झूठा,
आया मुझे होश,
बोला हाँ माँ क्या हुआ !!
सुनील मिश्रा "साँझ"
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