साहिल पे खड़ा हूँ मझधार देखता !
काश डूबकर कभी एक बार देखता !!
आवाज दे रहा है कोइ मेरा नाम लेकर !
कोहरा ये छटे तो उस पार देखता !!
मैं उसकी यादों को किये क़ैद घर में हूँ !
क़िस्मत में नहीं कि कोइ असफार देखता !!
उसकी आँखों में देखा मैने मेरा दुश्मन !
ख़ुद को देख लेता तो हरबार देखता !!
हाथों में लिये खंज़र बेख़ौफ घूमते हैं !
मौला उनकी आँखों में भी इज़तिरार देखता !!
मेरा नाम भूल जायें सब परवाह नहीं है !
जब आइना कहे मैं तुझमें इफ्तेख़ार देखता !!
फूलों ने बाग को वीरान कर दिया !
पहले ही जो बागबाँ कोइ ख़ार देखता !!
भूख और ग़रीबी को जो जड़ से मिटा सके !
मेरी ज़िदगी में ऐसी कोइ सरकार देखता !!
"साँझ" मौत से बस इतनी आरजू है !
मर जाऊँ मैं मेरे देश में बहार देखता !!
सुनील मिश्रा "साँझ"
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