आज मजदूर दिवस पर मेरी एक कविता...
*चकाचौंध*,
मजदूरिन करती है
मज़दूर के बराबर काम
कभी ज़्यादा भी
पर नहीं मिलती है मजदूरी
बराबर कभी उसे
मजदूरिन पकती है
भट्टी में ईंट सी
ईंट गारे सीमेंट को जोड़ती
हो जाती है सीमेंट सी
फिर भी रेत सी बिखरती है
पिटती है मजदूरिन
हर रात मरद से
झेलती है दंश
आत्मा पर बलात्कार के
मजदूरिन पिसती है
दर्द की चक्की में
फिर भी तेल में निचोड़ देती है
मर्द की पीठ के दर्द को
अपनी पीड़ा भूलकर
मजदूरिन खटती है
कुटती पिटती है
तिल तिल कर मिटती है
घर में, सड़क पर
ऊंची इमारतों में
हर मजदूरिन के साथ
खटती,
कुटती
पिटती
मिटती है एक औरत ।
तब बनती है
चमक दमक और चकाचौंध
©सुनीता शानू
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