हिमशीत गिर-गिर कर
मोती बन छूती है हरी घास
गबई लड़के ये भू के
भू पर लगते है परिहास
अधखुला बदन लिए
दिखते तो है बेहास
बिन पैसे के उनकी
अटक गयी है सांस
तन की काया काली
भू पर छायी हरियाली
भूख से करते कंपन
सारे जग में सूनापन
असील केालाहल
सुख-दुखः के ये दल
आंसू देकर करते क्रय
युग बीत गये युग को संचय
ये मिट्टी के पुतले भू के धन
जिनका शीतल है मन
जिन्हें न परिवर्तन दिन-रात
जिन्हे न आलोक है ज्ञात
प्रकृति ने बनाया मौन
देखेगा इन्हें कौन ?
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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