लड़ते रहे हैं मन्दिर-ओ-मस्जिद के वास्ते , इंसान कम बस्ती मे भगवान बहुत थे देखा बार बार पुरा शहर घूम के घर कम मिले लेकिन मकां बहुत थे हो गया दिखावा हर एक बात का चोट कम चोट के निशान बहुत थे खोल कर जुबां दर्द भी बता न पाये उस भीड़ मे मेरे जैसे बेज़ुबान बहुत थे भूखे रहे थे बच्चे उस घर के कई रोज उस घर मे आए उनके मेहमान बहुत थे
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