पंचवटी की आभा
पंचवटी की आभा.
लेखक- सुरेन्द्र वर्मा
1-पूज्य पिता के सरल चित्त की /मर्यादा का रखने मान / सहर्ष राम अरण्य पधारे/इष्ट देव का करके ध्यान
2-अनुकरणीया सीता ने भी./ गुने न वन के कष्ट / लखन सहज ही साथ बने /त्याग विलास निकृष्ट
3-अनुरोध विरोध न डिगा सका / श्री राम के चरणीं को / परम सत्य के अनुगामी /समझें तुच्छ आभरणॊं को
4-मुनि अगस्त के परामर्श से / पंचवटी में आए / उमा महेश को शीश नवाकर / पर्णकुटी निरमाए
5-सरिता का कलरव पंचवटी में/ शिशु-सा मचला करता था / वृद्ध सयाने वट वृक्षों में/ आशीष बरसता रहता था
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१ सीता राम और लक्ष्मण / पंचवटी में रहते थे , मुनिजन पुरजन आ आ कर /. धन्य स्वयं को करते थे.
२.गोदावरी नदी निकट / निर्मल नीर बहाती थी / सीयराम की निर्मल वाणी / सुरसरि वहाँ बहाती थी
३.रंग रंग के पुष्प गुच्छ / मन को वहाँ लुभाते थे / पक्षी कलरव कर कर के / अपना आल्हाद जताते थे
४.शुक पिक के अतिरिक्त वहाँ / नाना वानर भालू गिद्ध / स्वच्छंद प्रेम आवागमन / पंचवटी थी नहीं निषिद्ध
५.सीख गए एक दूजे की / भाषा भाव और अर्थ / भविष्य की धरोहर होती / शिक्षा जाती नहीं व्यर्थ
६.वृक्ष रसीले फ़ल देते थे / उसकी छाया आती थी / भमरों की टोली मानो / यशोगान को गाती थी
७.बांसुरी भौरे बजाते / तितलियां थी नृत्य करतीं / सुमन सुगन्धित सुरभि देती / विरक्त को अनुरक्त करती
८.कुछ पौधे भाभी ने रोपे / कुछ देवर ने लगाए थे / श्रम जनित स्वेद देखकर / रघुवर किंचित मुस्काए थे
९.निज बगिया के पुष्पों सेशिव का पूजन करते थे/ निज उत्पादित स्वादिष्ट फ़लों से/अतिथि अभिननदन करते थे
१०.पवित्र पुनीत रखती थीं सीता / पंचवटी के प्रांगण को / होते प्रमुदित प्रभु सुन/देवर भाभी के संभाषण से
११.नीम आंवला तुलसी को / जब प्रभु ने गुणी बताया है/ लक्ष्मण से पाकर प्रेरणा./वनवासियों ने उगाया था
१२.मधुमाक्षिका रेशम कीट / इनसे से भी पिरित पंचवटी / अन्न वस्त्र औषधि रक्षा में / स्वावलम्बी है पंचवटी
१३.धेनुगाय बनकर वनदेवी / स्वयं यहाँ पर आई थीं. / गोभक्षक पापी दुष्टों से./. रक्षा उसने पाई थी.
१४.मधु नवनीत दुग्ध घृत / पंचवटी में थे उपलब्ध / पंचवटी के स्वावलम्बन पर ./ देवऋषि भी थे स्तब्ध.
१५.प्रसन्न वदन से हितकर भोजन/सीता स्वयं पकाती थीं./ और मधुरता बढ़ जाती जब/ निज सम्मुख बैठखिलाती थी
१६.माटी के कुछ ही बर्तन थे / जनकसुता की रसोई में /. केले के पत्तों की थाली थी/ रघुवंश वधू की रसोई में
१७ .स्वर्ण रजत के पात्र नहीं है/और न दासी दास हैं/नहीं सुकोमल शय्या है. न वैसे चीर लिबास है
१८.विनय विवेक ही स्वर्ण रजत है / शम-दम दासी दास हैं / स्वावलम्ब की सुन्दर शैय्या / मर्यादा चीर लिबास है
१९.पुरजन परिजन फ़ुरू पितु माता/याद राम को आते हैं/शिव रखें सभी पर कृपा दृष्टि/प्रभु यही सदा मनाते है
२०,कैकई के कलुषित कृत्यों को / लक्ष्मण भूल न पाते हैं / मन के क्षोभ अवसाद त्याग दो / सीता राम समझाते हैं
२१.कहती कम सुनती ज्यादा थीं/सीता मन्द मन्द मुस्काती थीं/ अल्प शब्दों में विनम्र भाव से/मन कए भाव जगाती थी
2२.जनक पूर के लता कुंज/ सुमन वाटिका विवाह प्रसंग/ मिट जाती एकाकीपन की पीड़ा/छा जाता था रस रंग
2३.जनकपुर के जेवानार पर/ गारी की बोल सुहाआते थे /बिदाई प्रसंग पर सीता के /सजल नयन हो जाते थे
2४.माता का स्नेह अपार था / पर उसमें अनुशासन था / हृदय नम्र नवनीत पिता का. / पर कठोर प्रशासन था
२५.धैर्य सह६ष्णुता विनय शुचि/माता ने मुझे सिखाए हैं/गृह कार्य दक्षता कर्मठता/ आज काम में आए हैं
2६..एक सखी सुन्दर सुन्दर / भित्ती पर चित्र बनाती थी / एक सखी अत्रिप्रिय मुझको / मेहंदी खूब लगाती थी
२७.पितु गृह से पतिगृह पहुंची सब/सबके अपने भाग्य हैं. / फ़िर मिल सब झूला झुलैं / क्या अब ऐसे भाग्य है
२८.सखियों के विवाह अवसर पर /माँ ने मंगल गीत गाए हैं/ ऊंच बीच का भेद भूलकर मंगल कशल सजाए है
२९..बनते जो पकवान सखियों को / माता उन्हें खिलाती थीं / निर्झरिणी बन मातृ भाव की/ बेटी कह उन्हें बुलाती थीं
३०.द्विज बंधुओं से कन्याएं/ लेखन शिक्षा पाती थीं/ गुण कर्म विभाग समझकर/वे शिक्षा बोध कराती थीं
३१.नारी कोई पुरुषों जैसे/करतब अगर दिखाती हैं/ यश और धन पा जाए मगर/क्या आदर्श बन पाती है
३२. संरचना स्वभाव प्रवृत्ति से./है नैसर्गिक भेद नर नारी में/ कोई किसी से कम नहीं पर/है भेद अनिल और बारी में
३३. शील संकोच शुचिमय हो/वेश क्रियाएँ और संवाद/सुखी होगी नारी तब/जब होगी वह निर्विवाद
३४.मैं भड़भगी मुझको ऐसे.सुहृअय सास ससुर मिले/गुरू वशिष्ट सी कृपा दृष्टि हो/सबको ऐसा घर द्वार मिले
३५. ज्ञानी ध्यानी वृद्धों को भी/ गुरू का आभाव खटकता है/हरता भव की पीड़ा को गुरु/श्रद्धानत न भटकता है
३६.कौशल्या के कुशल प्रेम ने./सबको बांधे रक्खा है/मित्र भाव सोमित्र माता का/सबको साधे रक्खा है
३७.भरत जननी नीति निपुण है/ और इन्हें भी हैं प्यारी/कैकय राज की प्राण सुता है/और ये विष्णु के अवतारी
३८ राजमहल में रहते हैं सब,पर/ भोग विलास के नहीं हैं दास/वर्षा आतप शीत कष्ट/सहने का करते हैं सब अभ्यास
३९.वृत आदि सभी करते हैं/ तिथि वार नक्षत्र शोध कर/ परम्पराएँ परामर्श देतीं हैं/गौरवमया हैं और सुबोध कर
४०.सेवक वर्ग बना रहता है/ कौशल नृप से सदा प्रसन्न/ सम्मानित जीवन जीता है/ और न रहता कभी विपन्न
४१. आदर स्नेह से आबन्धित गृ/ स्व अनुशासन का है राज/ दत्त चित्त नियमित दिनचर्या/ नहीं अकाज का कोई काज
४२.आतिथ्य योग्य अतिथि प्रासाद में/ पा पाता प्रेम प्रसाद/ ऋषि परिजन का आतिथ्य./करता दूर है अवसाद
४३,तुलसी बिरवा प्रहरी सा/ अन्तः प्रांगण में लगा हुआ है/ हरा भरा आंगन रनिवास का./श्रम मानो स्वयं फ़ला हुआ है
४४.मंगल गीतों को ललनाएं जब/ मघुर कंठ से गाती हैं./ सौभाग्य स्नेह स्फ़ूर्ति के मानों/ दीप जलाए जाती हैं
४५. मन्दमति मन्थरा ने कैसे/ कैकई की बुद्धि की निश्चेष्ट/ कितना प्रबल हुआ करता है/ शब्दों का आखेट
४६.पशु धन को स्नेह महिलाएं/आभूषण जैसा करती हैं/ देख रेख उनकी प्रासाद में/ निज शुशुओं जैसा करती हैं
४७ होगी अवधि यहाँ की पूरी/ फ़िर लौट अयोध्या आऊँगी/ दूंगी सनम्र योगदान/ मैं निज कर्त्तव्य निभाऊँगी
४८.लौट पुनः न मिल पायेंगे/ कतिपय जन इस जीवन में/ टूट चुके हैं जो तारे/ फ़िर न दिखेंगे गगन में.
४९.मृग शावक के स्पर्ष से/ सीता का, स्मृति क्रम टूटा/ कैसे दृष्य संजो कर रखता/ जो अतीत में टूटा
५०.कुछ महिलायें प्रेमवश / सीता समीप आईं थीं / एक महिला अपने./ एकादश बच्चे भी लाई थी.
५१.नवविवाहिता भी एक./ संग उनके आई थी / वैवाहिक जीवन में संयम पर ./ वह बहुत मुस्काई थी
५२. यादें एकादह पुत्रों की माता को/ आदर्श बनाओगी./ जीवन भर आभावों कश्टों को/ अपने गले लगाओगी
५३. ले ढोलक बैठ महिलाओं ने/कुछ गीत सुहाने गाए थे/ पर्व मनाती पंचवटी नित/ अवधि बीतती जाए
५४. जननी जाया और वैभव को/ छोड़ लक्ष्मण आए थे/सीता राम प्रति सहूज अनुरागी/उनको दास्य भाव ही भाए थे
५५. कठिन तपस्वी जीवन को/ लक्ष्मण ने अपनाया था/ वही अयोध्या, जहाँ राम हैं/.उनकी माता ने समझाया था
५६.रात्रिकाल में प्राणी जब/ निद्रा का सुख लेते हैं/ योगी लक्ष्मण प्रहरी बन/ प्र्भु सेवा का सुख लेते हैं
५७. निशि ज्यों०ज्यों गहराती है/ निसाचरों की बन आती है/ हिंसक पशु निकल पड़ते हैं/तमी, तमी तब बन जाती है
५८.लम्पट,चोर,दुष्ट जनों की/ मायावी माया छा जाती है/ जो जुड़े अपने इष्ट से हैं अपने/निकट न उनके आ पाती है
५९. गर्वीले गर्जन से कंपा रहा है/ वन को, सिंह दूर नहीं/करुण क्रन्दन भी सुन पड़ता है/आहत मृग का दूर नहीं
६०.उदार हृदय से विशाल वृक्ष पर./पक्षी कोटर में सोए है/ दिन भर के छूटे अपने बच्चों को/डैनों के नीचे रखकर सोए हैं
६१.अर्ध रात्रि में क्यूं ये पक्षी /मर्मान्तक क्रन्दन करते हैं / सामिष प्राणी के प्रहार से करुण रुदन करते हैं
६२.सिंह आदि तो विवश हैं / कर शिकार भरने को पेट / पर मानव क्यूं करता है/ निरीह प्राणियों का आखेट
६४. वन की शोभा है पशु-पक्षी./ प्रकृति प्रदत्त इन्हें संरक्षण./इनका भी अपना जीवन है./समझें देकर कतिपय निज क्षण
६५.दम्भ और लाभ हेतु यदि./मानव करता है मृगया,/बनवासी प्रतिरोध करें./करें प्रतिबन्धित नृप मृगया
६६.वो देखो अनगिनत तारों से./एक तारा टूटा./ ज्यों साधक को चित्त वृत्ति से./एक विषय है छूटा.
६७.गहरी शांत उस झील में./ प्रतिबिम्ब चंद्र का स्थिर है./जो स्थित प्रज्ञ./निज स्वरूप में स्थिर है.
६८.संसार जाल में उलझा मन./ कहाँ अनत सुख पाता है./ चंचल जल में ज्यों चन्द्र का/ बिम्ब न बनने पाता है.
६९.वसुन्धरा के विराट वैभव को / ग्रह तारागण देख रहे हैं / नित नूतन परिधान बदलती / पृथ्वी को वह देख रहे है,
७०.लगता है वो दो तारे / आपस में बातें करते हैं / मर्त्य लोक के मानव निज को / अजेय अमर समझते हैं
७१.मिलकर भी समस्त तारागण / रवि सम प्रकाश नहीं दे पाते हैं / संतोष और भक्ति बिन वैभव / यथा न सुख दे पाते हैं,
७२.सप्त ऋषियों की ओर देखकर / लक्षमन ने शीश नवाया / शिरोधार्य कर इन मुनियों को / नभ ने अपना मान बढ़ाया
७३. त्याग शास्त्र सम्मत विधियों को / करते हैं जो मनमानी / वे त्रिशंकु-सी दुर्गति पाते / पाते दुख अपयश अज्ञानी
७४. किस भागीरथ ने नभ में / अवत्गीर्ण किया है गंगा / शिव ने ही झेला होगा / अनन्त आकाश की गंगा को
७५. उदय अस्त नहीं होता है / उत्तर स्तिथ तारा / अडिग सत्य निर्भीक भक्ति का / परिचालक है ध्रुव तारा
७६. वर वधू को विवाह अवसर पर ./ ध्रुव दिखाया जाता है / अध्याय विश्वास और प्रेम का / इस प्रकार सिखाया जाता है.
७७.गौरीपूजन हेतु सिया संग / उर्मिला भी आईं थीं / देख सहज सुदर सुन्दरता / मन ने चंचलता दिखलाई थी.
७८. मन्द समीर, सुमन सुगन्धित / सब अभिसारी था / संकोश शील मर्यादा का / पलड़ा फ़िर भी भारीअ था.
७९.प्रसंग वश उर्मिलाअ ने मुझको / एक बार बतलाया था / परशुराम से मेरा विवाद / उन्हें नहीं भाया था.
८०.कहती थीं मैं परवश थी / वरना तुमको देती रोक / उचित नहीं ऐसा अनुचित भी / जिसकी परिणति होती शोक
८१.उर्मिला ने मुझे सदा ही / मित्र व्यवहार सुझाया है / कठिन समय में धीरज धरना / भी उसी ने सिखाया है
८२. याद निरन्तर करती होगी / किन्तु कुछ न कहती होगी / गणना करती शेष अवधि की / अश्रुधार बहती होगी
८३.दामपत्य के मधुर दृष्य कुछ / नेत्र पटल पर आए / गहन श्वास ले शमित विचार कर /सहज हुए लज्जाए
८४. निसतब्ध निशा में एकाकी लक्ष्मण / बात स्वयं से करते हैं / चलता रहता मन का मन्थन / याद गुरु की करते हैं
८५. गुरु चरण सेवा से सीखें / अस्त्र शस्त्र और शास्त्र / साथ गुरु ने सिखाया हमको / बनना सबके प्रिय पात्र
८६. आयुध का निर्माण गुप / और सुरक्षित शस्त्रागार / हो जावे शत्रु विवश / करने मित्र वत व्यवहार
८७. मित्र भाव से मिले सदा नृप / और दिखाते प्रीत / परदेशी का विश्वास करे ना / है कुशल नृ नीति
८८. देना पड़े यदि शरण तो / दे कुछ समय निवास / पर ना बन बैठे वह स्वामी / और न हमें बनाए दास
८९.पठन पाठन के साथ साथ / शिक्षा समर की पाई है. / अन्न फ़ल उपजाने की / व्यवहारिक शिक्षा पाई है
९०.गायन वादन नर्तन में निपुणता / गुरु कृपा से आई है / जिससे जीवन के स्वरों ने / लय ताल बद्धता पाई है.
९१.दुर्भिक्ष अकाल भूकम्प / जल प्लवन अग्नि युद्ध/ इनके लिए रखें नृप./ अन्न जल से भंडार समृद्ध
९२. कर अनीति बने बलशाली./ जिसने उत्पाद मचाया है./ नृप कर्तव्य जान मुनि ने/ हमसे वध उनका करवाया है
९३. प्रबुद्ध और साधु जनों ने / निगम नियम बनाए हैं / उनके पालन अके रुरू सन्मुख / अहमने संकल्प उठाए हैं
९४. त्वरित न्या व्यवस्था हो / आरोपी पाए दण्ड कठोर / मार्ग बने निर्भीक सुगम / हटे अववस्था, मिटे शोर
९५. नृप स्वयं बने ना व्यापारी / व्यापारी करें देश विख्यात / मादक और अहितकार सामग्री / का न हो आयात निर्यात
९६. जीवन क्षेत्र का कोई शिल्पी / हो न पाए कभी निराश / पहचान राष्ट्र को इनसे है / इनमें है समृद्धि का वास
९७.छोड़ उत्तम बीजों को हठात / निकृष्ट बीज उगाते हैं / वे किसान कभी भी / अच्छी फ़सल न पाते हैं
९८.योग्य जनों का स्थान / अयोग्य जब पाते हैं / कार्य भार सम्हाल न पाते / व्यवस्था को और डुबाते हैं
९९.श्रद्धायुक्त अनुशासित शिक्षा / निम्न वर्ग जब पाएगा / योग्य पदों के योग्य तभी / उस्का संरक्षण हो पाएगा
१००.अपराधी विलासी मद प्रेमी / बहुपुत्र जनक, बहुपत्नी धारी / प्रश्रय दे न इन्हें कोई / ये हैं समाज के विषधारी
१०१.पापाचार से डरें सभी / पुण्य करने में रुचि हो / सामाजिक निंदा हो दुष्कृति की /वाणी कर्म में शुचि हो
१०२.अन्न –जल औषधि वृक्षों से / ग्राम प्रत्येक हों सम्पन्न / कर परिश्रम सभी लोग / निज गृह से रहें प्रसन्न
१०३.अपनी कालिख देने से पहले / सुन्दर रंग दिखाती सन्ध्या / आकर्षक बन जाता पश्चिम / भानुप्रिया बन जाती सन्ध्या
१०४. स्वागत करते सविता का / पूर्व दिशा सजाती ऊषा / तिमित हरण का संकल्प लिए / आलोकित करता फ़िर पूषा
१०५.रक्तिम वर्णी कुसुम बिछाती / रतनारी आंखों की प्राच्री / शुभ सौंदर्य वर्णातीत अत / (मानो) दिव्य आभूषित दिव्या शाची
१०६. गायत्री मंत्रों का गुंजन / आर्ध्य चढ़ाते मुनिजन गुनिजन / प्राण स्वरूप सस्विता से मांगे / उत्तम कार्य करें धी तन मन
१०७.सिया राम ने निद्रा त्यागी / उधर आलोक दिया सविता ने / उमा गणेश शिव का सुमरन कर / द्वार उघारे सीता ने
१०८. द्वार उघारे सीता ने / स्वयं ममत्व द्वार पर आया / मृग शावक धाए हो पुलकित /गोवत्सों ने रंभाया
१०९.कर स्नान आदि तीनों ने / निज स्वरूप का ध्यान किया / शिवपूजन करके प्रभु ने /. अतिथियों का सम्मान किया
११०.ऐसा सौहार्द बना कुटिया में / भय तृष्णा और शूल गए / ऐसा स्नेह दिया सीता ने / माताओं को लक्ष्मण भूल गए
१११. प्रखर प्रतिभा प्रज्ञा प्रति / प्रेम प्रीति तो रहती है / श्रद्धा युक्ता भुखी उत्कंठा / कष्ट मार्ग के सहती है
११२.जिसकी जहाँ जैसी श्रद्धा हो / खींच वहीं ले जाती है / और अरण्य की बाधायें भी / अनुरागी को रोक न पाती हैं
११३.नाना बधायें सहकर भी ज्ञानी / पंचवटी में जाते थे / रामचन्द्र के दर्शन पाकर / कृतकृत्य हो जाते थे.
११४.कंद मूलफ़ल लेने लक्ष्मण / जब अरण्य में जाते हैं / वनवासियों के परामर्श से ./सहज उन्हें पा जाते हैं
११५.दास्य भाव रखते वनवासी / लक्ष्मण रखते उनसे प्रीत./ निर्मल हृदय कुछ और न देखे/ बने एक दूजे के मीत
११६.भगण तगण को नहीं जानते./ दीर्घ हृस्व का ज्ञान नहीं./ नवरस से पगी बोली / नागरीय अभिमान नहीं.
११७ तरुवर रखी अनगढ़ प्रतिमाओं से / लक्ष्मण का परिचय करवाया / सत्व रूप श्रद्धा को आदर दे / लक्ष्मण ने शीश नवाया
११८. शंख पंख से आभूषित हो / नृत्य परिक्रमा करते हैं. / कुछ प्राकृत शब्दों का उच्चारण / बीच बीच में करते हैं
११९.करने प्रसन्न देवों को बलि से /जब बांध पशु को लाया / रोका लक्ष्मण ने उनको / भय दिखाया, कुछ समझाया
१२०. मदिरा आदि व्यसन कर / उद्दंड व्यवहार जो करते थे / प्रभु प्रेरित हो त्याग व्यसन /सद्व्यव्हार वे करते थे.
१२१. आलस्ययुक्त कतिपय बनवासी / पा रामानुज से उत्साह / नव स्फ़ूर्ति से संचारित ./ करें स्वकर्म का अब निर्वाह
१२२.विचित्र वेश में विचित्र क्रियाओं से / लोगों को सम्मोहित करता था / प्रेत बाधा बता बता कर / जीवन और धन हरता था
१२३.एक बार एक महिला का / कर रहा था वह रोग निदान / पा लक्ष्मण को निज सम्मुख / भागा तुरंत ले प्राण छोड़ सामान
१२४.तब बनवासी निकट ग्राम से / औषधि मर्मज्ञ को ले आए / स्वास्थ्य लाभ हुआ महिला को /सब परिजन हर्षाए
१२५.कलिल जल अखाद्य सेवन से / व्याधि कष्ट पाते थे / आहार के मौलिक नियमों को / परिचय तीनों से पाते थे
१२६.कूप खनन कर शुद्ध जल / पीते थे अब बनवासी / साफ़ स्वच्छ परिधानों में / अधिक स्वस्थ थे बनवासी
१२७. जमा जमा कर पत्थर पत्थर / सबने मार्ग एक बनाया / वर्ष भर सुविधा हो लखन ने / ऐसा मार्ग सुझाया
१२८.मिलजुल कर विवाद को / निपटाते थे वनवासी / कृत्रिमता से दूर चैन से / सोते थे वनवासी
१२९.हीन समझ स्वधर्म त्यागते / लखन उन्हें समझाते थे / परधर्म की भयावहता से / परिचित उन्हें कराते थे
१३०.अवधि पूर्ण होने पर तीनों / क्या लौटेंगे निज धाम / सतत करेंगे सेवा हम / बसो हमारे ग्राम
१३१. विहंसे राम उनके ममत्व पर / सीता किंचित मुस्काई / निश्छल लक्ष्मण की आंखें / इस अपनत्व पर भर आईं
१३२.देखो लक्ष्मण ग्रीष्म काल में / हरियाली का आभाव हुआ / भोगी वसन्त पर व्याधि का / मानों दुष्प्रभाव हुआ.
१३३.पर्णहीन तरु गिरि शिखरों पर / मौन तपस्वी लगते हैं / भोग चुके मोह माया को / अब विरक्त से लगते हैं
१३४,जल अभाव में लतिकाऎं / विधवाओं सी लगती हैं / श्रृंगार हीन सिमटी सिमटी / भयभीत भविष्य सी लगती हैं
१३५. प्यासे बंदर भालू पक्षी / इधर उधर भटकते हैं / अविवेकी नृप के राज्य में / शिक्षित ज्यों भटकते हैं
१३६.जघन्य पाषाण विवरों से जल / कहीं कहीं पर झरता है / ऋषियों का अमृत वचन / आनन्द घट को भरता है.
१३७.कर्मठ बना रहता वो ज्ञानी / जिसको परम तत्व की चाह / कभी निजला नहीं होती / सलिला जिसे समुद्र् की चाह.
१३८.सघन वृक्ष तर ग्रीषम काल में / दोपहरी का विश्राम / कष्ट रेख नहीं मुख पर / प्रमुदित लखन जानकी राम.
१३९.तपी रोहणी नौ दिन तक / मृग नक्षत्र है आया / खेलें चपल मेघ अम्बर में / इन्द्र ने, कृष्ण मृग दौड़ाया.
१४०.इसी धरा से जल लेकर / इसी धरा को जल देता है / क्यूं इन्द्र निरीह धरा पर / फ़िर वज्रपात करता है.
१४१. माटी की सुगन्ध आई / हुई कहीं है वर्षा / सुन सुपुत्र का सुयश ./ मन मात पिता का हर्षा
१४२.गिरि श्रृगों पर पावस / देख, मुदित मन होता है / कठिन साधना का फ़ल पा / आनन्दित मन होता है.
१४३.इस निशा में थे जुगनूं / बुद्ध जनों से लगते हैं / प्रदीप्त स्वयं को स्वयं करो / संदेश जगाते जगते हैं
१४४.कभी दिखाई देते तारे / कभी घटाटोप छा जाता है / मानव जीवन में जैसे / सुख दुख आता जाता है.
१४५.पावस में कूप सरोवर का / जल स्तर कैसे बढ़ता है / कुमार्ग पथी का अर्जित धन /.निस दिन जैसे बढ़ता है
१४६.चिन्तित राम कहें सीता से / वन्य प्रदेश औ पावस पड़ता है / लौटे नहीं निडर लक्ष्मण / मैं आशंकित मेरा मन डरता है.
१४७.सीता बोलीं लक्ष्मन लरिका हैं / मैं उनको समझाऊंगी / सुखी रहे जो ग्रीष्म काल में / पावस में उन्हें पकाऊंगी
१४८. भींगत भागत आए लक्ष्मण / कन्द मूल फ़ल लेकर / माटी सने मनोरम हो / सीता बोली पानी देकर
१४९. इस विचित्र दशा का ए देवर / मैं चित्र एक बनाऊंगी / लौटूंगी जब स्वगेह में / देवरानी को उसे दिखाऊंगी.
१५०.बोले लखन हास्य करने का / है अधिकार तुम्हें भाभी / आज अधिक ही देवरानी को / याद कर रही हैं भाभी.
१५१.वन में विलम्ब होने से / तुम्हारे अग्रज चिन्तित होते हैं / तुम बलशाली निर्भीक विवेकी / पर अनुज सदा बालक होते हैं
१५३.कुशल क्षेम बनी रहे / बना रहे सदा शुभत्व / तुम्हें सौंप दूं देवरानी को / पूरा हो मेरा दायित्व
१५४.निरभ्र गगन से शरद उतरा / लिपी पुती आंगन देहरी / दीप जले स्वच्छ गेह में /सन्ध्या बनी सुनहरी
१५५. वन गर्जन तड़ित झंझा से / वर्षा ने मन को दहलाया / शरद ही वश कर पाया
१५६.भर भर नदियों से जला डाला / क्या सागर का मन भर पाई है / उतरा ज्वार अब यौवन का / वर्षा आज बुढ़ाई है
१५७.पूर्ण चन्द्र शरद का देखो ./ इसमें शिशु की किलकारी है / दुग्ध पान के आमंत्रण पर / उसकी हठ भी प्यारी है
१५८. रंग मोहक तितलियों के / क्या शरद का मन मोह लेंगे / शर शरद के जाब चलेंगे / दीप जग जग जग जलेंगे
१५९. बगिया निखरी शरद में / फ़ूल बिखेर रहे सुगन्ध / सुवासित है जैसी मन्द मन्द है / पवन स्पर्ष देता आनन्द
१६०.शीतलता जल की बढ़ती जाती / ऋतु हेमन्त के आने पर / ज्यों नम्रता बढ़ती जाती /विपत्तियों के आने से
१६१.देख कृषक प्रमुदित होते / निहार ओस कणॊं को / सूक्ष्म तत्व ही देते हैं / जीवन के सुखी क्षणॊं में
१६२.कोहरे की चादर ओढ़े /देर देर तक सोती सरिताएं / रवि सा गुरू समझा पाता / गूढ़ अर्थ की वेद ऋचाऐं
१६३,कितना ठिठुरा जाता है / झोंका शीत पवन का / शीतलता ने जला दिया है / अंश एक उपवन का
१६४. दृष्य हुए अदृष्य जब /कोहरा सघन विस्तीर्ण हुआ / रवि किरणॊं के आतप से / क्षत विक्षत विदीर्ण हुआ
१६५,धवल धवल संत वेश सा /तरु रिपु कोहरा जैसा / मन कामुक पर इन्द्रिय संयम / विमूढ़ आचरण जैसा
१६६.हिमपात शीत कोहरे ने / चहुं ओर आतंक मचाया / विरीह प्राणियों को ठिठुरन से / हेमन्त बचा न पाया
१६७.अति हिमपात शीत धुन्ध से / जन गण मन अकुलाया / निष्ठुर नृप की नाई हेमन्त ने / शीत प्रकोप बढ़ाया
१६८,जन व्याकुलता देख प्रकृति ने / नृप हेमन्त हठाया /करने दूर अनीति अवज्ञा / सामन्त शिशिर बनाया
१६९.शनैः शनैः शेशिर शीत को / वशीभूत करता है / विकृत व्यवस्था की पीड़ा को / सन्यासी नृप हरता है
१७०.शीत उष्ण सम कर शिशिर ने / धन धान्य धरा का बढ़ाया / फ़सलें गदराईं फ़ूले टेसू / आम्रवृक्ष बौराया.
१७१.सम्पन्न श्री का प्राचुर्य हुआ / वसुन्धरा इतराई / त्याग शिशिर,वसन्त अंग लग / धरा बड़ी इठलाई
१७२. चली पवन कुछ पगलाई सी / छाय अनंग मित्र वसंत /साधु सयाने सम्हल गए / चीन्ह वसन्त का अंत
१७३.एक दिवस जब लखन / गए हुए थे वन / सीता के अधिक समीप / आये राम निर्जन में
१७४.कुसुम सुगन्धित ले रंग बिरंगे / सीता का श्रृंगार किया / वासंती रंग पगे रघुवर ने / अलौकिक अभिसार किया
१७५.ऋषि मुनि तपस्वी ज्ञानी / पंचवटी में आए थे / पीड़ायें हरते पंथ पंथ की / संत भाव सुहाए थे
१७६.ग्राम नगर वन सरिता पर्वत / सबसे अनुभव प्राप्त किया / दी शांति भक्ति कर्म ने / किन्तु शेष ने आप्त किया
१७७.सरयू समीप अयोध्या से भी / तीर्थाटन करते आए थे / गुरु वशिष्ठ के आशीष संग / समाचार भी लाए थे
१७८.कर अभिनन्दन राघवेन्द्र ने / पूछी सबकी कुशल क्षेम / निहार राम की छवि अलौकिक /.सजल नैन बस प्रेम प्रेम
१७९.पूंछे राम गुरू कैसे हैं / माताएं सब कैसी हैं / कैसे दोनों लघुभाता हैं / भ्राता वधुएँ कैसी हें
१८०. रोक न पाए जिज्ञासा लक्ष्मण / माँ अरुन्धति को पूछा / सीता ने सनम्र भाव से / एक एक को पूछा
१८१.बोले संत, हे राम जहाँ / , है स्नेह कुशलता होगी / जहाँ बसे रघुवीर हृदय में / निर्मल निर्मलता होगी
१८२.हे राम गुरू ने तीनों को / अपना आशीष भिजवाया है / गुरू माता ने अश्रुजल सिंचित / अपना स्नेह दिखाया है
१८३. शत्रुध्न भरत सजगता से / अयोध्या रक्षण करते हैं /जनहित में लगे अहर्निश आपका / सुमिरन प्रतिक्षण करते है
१८४. हे राम भरत और शत्रुघ्न / राम नाम रस पीते हैं /.मान धरोहर सत्ता को / वनवासी सा जीवन जीते हैं
१८५.राज प्रासाद में हुआ / हमसे कैकई का सम्बाद /. बोलीं विनम्र अति दीन दुखी / उनमें नहीं कोई प्रतिवाद
१८६. बुद्धि क्षीण हुई थी उस क्षण / जिस क्षण मांगा था वनवास / क्षण क्षण प्रतिक्षण भेदता / राम विरह आभास
१८७. मोदक लिए शिशु राम मुठ्ठी में / मेरे मुंह में देते थे / नन्हीं उंगलियों के स्पर्श मुझे / आनन्द अतुलित देते थे
१८८. पग पैंजनियाँ पहन राम / जब गिरते उठते चलते थे / वाद्य यंत्र भी लज्जित होते / स्वर नूपुर से वो निकलते थे
१८९ छॊटे राम छॊटी धनुषी से / छद्म मृगया करते थे / देख सटीक लक्ष्य भेद / पिता अंक में भरते थे
१९०.भरत राम को मैंने जीवन में / कभी भिन्न न माना / पर विधि का विधान बना ./ मुझ पर ही कलंक लगाया
१९१. मेरा यही आशीष सदा ./ राम रहें प्रसन्न / सीता सहित सिंहासन पर / अविलम्ब हों आसन्न
१९२.सुधि सीता की सदा रखें / ये राम लखन से कहना / छोटी माता रोक सकीं ना / अश्रुजल का बहना
१९३. लखन तनिक क्रोधी हैं / पर उसका हृद्य निर्मल /सीता राम चरण रति / निर्मल को कर देगी निर्मल
१९४. मुझसे अधिक सीता उसका / रखती होंगी ध्यान / माता की कमी का उसको / ना होता होगा ज्ञान
१९५.मैं तो शायद इसी जनम में / बनी लखन की माता / पर सीता जन्मों जन्मों से / होंगी उसकी माता
१९६. मुझे नहीं चिन्ता लखन की / और न चिन्ता राम की / जनकसुता की मुझको चिंता / जो मूर्ति ममत्व निष्काम की
१९७. न उत्सव होते, पकवान न पकते / राजमहल जैसे सूना / राम लखन सीता आभाव / बढ़ता जाता है दिन दूना
१९८.चतुर रसोइये भूल चुके हैं / भोजन स्वादिष्ट पकाना / सैरन्ध्री भी भूल गई है / उसका काम सजाना
१९९. कोयल तो अब भी दिखती है / पर उसमें वह कूक नहीं है / तीज त्योहार अब भी आते हैं / पर उनमें वो हूक नहीं है
२००.गीत विरह के कवि लिखते हैं / साज पड़े उदास / कोई राग न गा पाते गायक / जिसमें हो उल्हास
२०१.द्वार खड़ी मृत्यु वृद्धों की / पर ले रहे वे श्वास / संकल्प भाव से जीते हैं / राम मिलन की आस
२०१. खपत अन्न की हो ना पाती / भंडार जैसे के वैसे / जब कष्ट में हों अपने / तन, कोई खाए कैसे
२०२.भए न शिशु अयोध्या में / विरक्त हुए नर नारी / काम रहित मन में सबने छवि / दशरथ नन्दन की संवारी
२०३. रंग महल में सूनी आंखों से ./ वीणा देख रही चुपचाप / झंकृत तब होगी स्वमेव / सुनेगी, राम के पद चाप
२०४. श्रुति कीर्ति माण्डवी दोनों ने / सीता को नमन कहा है / कहते कहते इतना ही उनके / नीर नयन बहा है
२०५. कौशल्या माता ने सबको / अपना स्नेह कहा है / मनोबल टूट न पाए / ये संदेश कहा है
२०६. सुख दुख तो जीवन में / आते जाते रहते हैं / मर्यादा विवेक और धैर्य से / पुरुषोत्तम इसे निभाते हैं
२०७ भरत शत्रुघ्न शासन को / सुचारु रुप चलाते हैं / सहज नैतिक नियमों का / पालन वे करवाते हैं
२०८.यद्दपि हृदय से सभी दुखी / पर नहीं है श्रम से दूर / गुरु करवाते रहते हैं / हमें सदा भ्रम से दूर
२०९.शिव का पूजन करते रहना / और गुरु शिक्षा का ध्यान / कठिन समय में भी न होगा / तुम्हें क्लेश का भान
२१०.लक्ष्मण को न जाने देना / दूर एकाकी वन में / सीता की रक्षा करना / मायावी निर्जन में
२११.निर्जन वन में अधिक देर तक / एकाकी रहे न सीता / सौम्य सुभाषिणी सीता बिन / मन यहाँ सभी का रीता
२१२. सीता को दे आशीष / ए पथिक मुनियों कहना / ममता बनी रहे लखन पर / कटुक वचन न कहना
२१३.हे राम ! भरत और शत्रुघ्न / राम नाम रस पीते हैं / मान धरोहर सत्ता को / बनवासी सा जीवन जीते है
२१४.जरा व्याधि से घिरी मन्थरा / निज कक्ष में रोती है. / संताप के गहरे घावों को / अश्रुधार से धोती है
२१५.तिरस्कार तिमिर कालिमा / उस पर छाई रहती है / पर माता द्वय की करुणा / उसे बचाए रहती हैं
२१६. गुरुमाता के समीप / हमने उर्मिला को देखा / निश्छल धर्म कर्म मण्डित / मुखमण्डल को देखा
२१७.गुरुमाता के साथ उर्मिला / ग्रन्थ पुरातन सहेज रहीं थीं / बिखती यज्ञ सामग्री को /. दत्त चित्त समेट रही थीं
२१८.माता बोली हे उर्मिली / कर प्रणाम उपदेश गहो / पंचवटी मुनि जाएंगे / इनसे कुछ संदेश कहो
२१९.”चरण गहती हूँ सीता के” / ऐ मुनियों से कहना / और पूज्य जो हैं मेरे / उनको नम्र नमन कहना
२२०.कोई कष्ट नहीं है मुझको / मैं सुख से जीती हूँ / कौशल्या के शयन कक्ष में / उनकी सैय्या पर सोती हूँ.
२२१. माँ अरुन्धति के सस्नेह का / मैं कैसे आभार कहूँ / जो देखा है वही बताना / और क्या संदेश कहूँ
२२२.भरत शत्रुघ्न तो हमारे / बार बार पग लगते थे / हम सेवक हैं सिया राम के / बार बार वे कहते थे
२२३.प्रतीक उनकी चरण पादुका / भ्राता राम के आने तक / अनिमेष प्रतीक्षा उस क्षण की / अवधि बीत जाने तक
२२४. भाभी के नत मस्तक हम हैं / लिए हमारे कष्ट सहे / सौमित्र को स्नेह नमन / उन पर राम कृपा विशिष्ट रहे
२२५. कृपालु मुनियों हमने रुचि से / संदेश श्रवण किया / स्वगेह में मानो हमने / मानस भ्रमण किया
२२६.चिंता सहज किया करते हैं / जन अपने स्वजन की / ममता डोर बंधे रखती है / इसी तरह अपनों की
२२७.सूर्पनखा
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