मैं और मेरी सहेली किषोरावस्था में थी। हम दोनों बगीचों में जाती और संतरे चुराकर खाती थी। उस समय बह का सूर्य निकल रहा होता था। सूर्य की किरणंे पास के बाग में पके हुए संतरों पर बहुत सुन्दर दिखती थी।एक दिन मेरी सहेली मेरे से पहले ही संतरे के बगीचे में पहुँच गई थी। उसने बहुत सारे संतरे पेड़ से उतार लिए थे और खाना षुरू कर दिये थे, बाग के मालिक को भनक लग गई थी कि उसके बगीचे से कोई संतरे चुरा ले जाता है और इस कारण संतरे कम होते जा रहे थे। अचानक उसने उस बागीचे में अपनी दबिष दे दी और मेरी सहेली को रंगे हाथों पकड़ लिया। गुस्से से लाल हुआ बागवान मेरी सहेली को डँाटे जा रहा था । ठीक उसी समय खूब दौड़ती हुई मैं भी वहाँ पहँुच गई। सारा मंजर देख कर मैंने अपने हाथों की उंगलियँा मुँह में ड़ाल ली। बागवान ने मेरी तरफ इषारा करते हुए बोला “यह भी तेरी सहेली है, देख इसे, कभी चोरी करते हुए देखा ? मैं कितनी संस्कारी और षरीफ हूँ। यह मैं ही जानती थी। इस घटना ने मेरी षराफत की हवा ही निकाल दी थी।
सुशमा देवी
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