जिन्दगी को आदमी, आम की, नजर देखो
रख कभी सीने , वजन कोई , पत्थर देखो
डूबने लग जाए, स्वयं ही वजूद कभी
लहर उठती,रह किनारे, समुंदर देखो
आग नफरत की लगाकर, जो छिपा करते
उतरता 'खूनी' वहां कब , खंजर देखो
जो हमे बेख़ौफ़ मिलते, हर-कहीं हरदम
चेहरे क्यों हैं मलीन, आँखे भी अन्दर देखो
एक तमाशा सा, हुआ तेरे शह्र में कल भी
आज की, ताजी फिजा क्या है ,खबर देखो
@@@ ...सुशील यादव ....
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