मूँग छाती पे दले जाते हैं।
वोट लेते हैं, चले जाते हैं।।
ये जो नेता हैं सितमगर सारे।
ख़ून पी-पी के पले जाते हैं।।
उन पे करते हैं यकीं हम लेकिन।
वो न माने हैं, छले जाते हैं।।
है न नेता में हया थोड़ी भी।
मुख पे कालिख वो मले जाते हैं।।
उनकी चर्बी में इज़ाफ़ा होता।
जिस़्म जनता के गले जाते हैं।।
उनके क़दमों के तले कालीनें।
पाँव जनता के जले जाते हैं।।
ऐसा देती है हक़ीक़त धक्का।
ख़्वाब आ-आ के चले जाते हैं।।
भूखे आते हैं सुबह मेहनतकश।
भूखे घर साँझ ढले जाते हैं।।
आ न पाते हैं सुकूँ के लम्हे।
'सिद्ध' फिर-फिर वो टले जाते हैं।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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