(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
पहले प्रीत जताते अपने,
फिर विष-दंत गड़ाते अपने।
वैसे तो बहुतेरे हैं पर,
सब से अधिक सताते अपने।
जब भी आते हैं मिलने को,
स्वार्थ लेकर आते अपने।
कहते हैं- 'मत चीखो भाई',
नोंच-नोंच कर खाते अपने।
अपने हैं, खातिर कीजेगा,
वर्ना शोर मचाते अपने।
बेशर्मी से लूटा करते,
तनिक नहीं शर्माते अपने।
अगर नहीं चुपचाप लुटे तो,
हिंसक हो-हो जाते अपने।
'सिद्ध' अधिक कुछ क्या कहिएगा,
कैसे रिश्ते-नाते अपने।
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