Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आपसे जो बात कहनी थी

 

आपसे जो बात कहनी थी, छुपाते क्या।
दर्द गर हद से गुजरता, मुस्कुराते क्या।।

 

दिन का सूरज, रात की ना चाँदनी देखी।
भार इतना, सर उठाते तो उठाते क्या।।

 

जख़्म गैरों ने दिए होते, दिखा देते।
जो दिए अपने, ज़माने को दिखाते क्या।।

 

वो गुनाहों से मुकर के दूर तक भागे।
हर क़दम छूटे निशानों को मिटाते क्या।।

 

आशियां अपना जला तो हँस रहे थे वो।
आग उनकी ही लगाई थी, बुझाते क्या।।

 

वह नहीं कोई फ़रिश्ता, एक क़ातिल है।
'सिद्ध' उसके सामने सर को झुकाते क्या।।

 

 

ठाकुर दास 'सिद्ध'

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