उसका तन चिकना-चमकीला, बिलकुल बीरबहूटी है।
किन्तु आत्मा की मत पूछो, वह तो निपट कलूटी है।।
उसके भवन सुशोभित करती, है वैभव की आभा जो।
उसने निर्धन के आँगन से, वह छल-बल से लूटी है।।
स्वर नफ़रत के ही सम्मानित, होते उसकी महफ़िल में।
प्रीत-प्यार की परिपाटी तो, उसके कारण टूटी है।।
मार काट के दृश्य देखकर, अट्टहास करती दानवता।
मरणासन्न पड़ी मानवता, नहीं सजीवन बूटी है।।
श्वानों को पुचकारे वह पर मानव को दुत्कार रहा।
दीन-हीन तो नहीं सुहाता, उसको आँखों फूटी है।।
रक्त-पात ना देखे वह तो, उसे नींद न आती 'सिद्ध'।
बहुत पुरानी आदत उसकी, छूटेगी ना छूटी है।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
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