(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',
आदमी को आदमी की अब गुलामी से गिला है।
शोषितों के कंठ से यह, शोषितों का स्वर मिला है।।
तुम हमारे रास्ते में क्या खड़ी दीवार करते।
सम्मिलित स्वर जो उठा तो, क्या धरा, अंबर हिला है।।
तुम हमारे रक्त से निर्मित रखे वैभव सँजो कर।
जिस जगह पर, वह हमारे हाथ से निर्मित किला है।।
पर्वतों को हम क़दम की ठोकरों से चूर कर दें।
तुम हमारे रास्ते में रख रहे वह क्या शिला है।।
क्या तुम्हारे बाजुओं में जोर है जो रोक लोगे।
रोष भर कर चल पड़ा जो, शोषितों का काफिला है।।
'सिद्ध' अब सरहद सहन करने की पीछे रह गई है।
जंग-ए-हक़ का गुल खिला दो, जो अभी तक अधखिला है।।
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