(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
अब तबीयत ठीक है, सुन के कि बस्ती जल रही है।
आज-कल शैतान की दूकान चोखी चल रही है।
तुम नहीं तो रात की लंबाई जैसे दस गुनी हो,
आँख को अब यूँ लगे है, भोर जैसे टल रही है।
गालियों को इस ज़माने की, रहो तैयार यारा,
हाँ, ज़रा भी प्रीत दिल में आपके गर पल रही है।
खेल है तेज़ाब का अब चल रहा कैसा निराला,
अब नज़र के सामने हर चीज जैसे गल रही है।
टूट के बिखरा पड़ा इंसानियत का आज साँचा,
ज़िन्दगी अब और ही साँचे में देखो ढल रही है।
ओट में है बात मन की, सामने मुस्कान मोहक,
देखिए मुस्कान मोहक, हर किसी को छल रही है।
आज की ताजा ख़बर है, बात नफ़रत की मुखर है,
'सिद्ध' को ये बात लेकिन, बेतहासा खल रही है।
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