अब नहीं उठता कहीं पर प्यार का स्वर।
दुश्मनों की भीड़ में गुम यार का स्वर।।
जाने कैसा ये ज़माना आ गया है।
हर तरफ़ है तेग का, तलवार का स्वर।।
व्याधियों से दग्ध जन-जन आज का है।
आज है हर ओर हा-हाकार का स्वर।।
कैसे उसको रास आता भाईचारा।
भा गया जिस के लिए तकरार का स्वर।।
ख़ून अब जम सा गया है आदमी का।
खौफ़ उगले साँप की फुंफकार का स्वर।।
मैं ये बोला मन-विकारों को तजो रे।
सामने से आ रहा इन्कार का स्वर।।
हमने भेजा प्रेम का प्रस्ताव उनको।
पर नहीं आया कभी इकरार का स्वर।।
तुम अगर चिपके रहे थोथे अहं से।
तो सुनोगे 'सिद्ध' की फटकार का स्वर।।
ठाकुर दास 'सिद्ध',
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