(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध'
अंजुमन में आपकी हम आ न पाए।
ठीक से मजबूरियाँ समझा न पाए।।
मेज़ पर हर चीज़ लज्जत दार थी पर।
इस लिए ग़मगीन थे चमचा न पाए।।
उनको नहलाया गया है रोशनी से।
चेहरा अपना मगर चमका न पाए।।
रात-दिन जयकार की तो किसलिए की।
कैसे हो सकता है वो तमगा न पाए।।
पल खुशी के कुछ ऊँचाई पर रखे थे।
ख़ूब की कोशिश मगर हम पा न पाए।।
धमकियों पर धमकियाँ मिलती रहीं पर।
'सिद्ध' को शैतान वो धमका न पाए।।
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