बस्ती के
सीधे-सादे, भोले-भाले लोगों की
यही थी हर दिन की कहानी
कि वे
दिन भर पसीना बहाते थे
और दिन भर की मेहनत से
जो कमाते थे
शाम को उस कमाई से
दाल, चावल, आटा, नमक, तेल लाते थे।
पकाते खाते थे।
नींद आने तक परस्पर मिलते बतियाते थे।
नींद आती तो सो जाते थे।
सबके अपने-अपने सपने थे।
समानान्तर चलते थे ये सपने,
सपने कभी आपस में नहीं टकराते थे।
और उनके सपनों की तरह
वे भी।
ये तब की बात है
जब उस बस्ती से शैतान नहीं गुज़रा था।
लेकिन अब बात और है।
वे
भूखे पेट करते हैं मेहनत
दिन भर,
और दिन भर की मेहनत से
जो थोड़ा सा कमाते हैं,
उस मेहनत की कमाई से
नहीं लाते दाल-चावल-आटा,
अब वे हथियार खरीद लाते हैं।
इसलिए कि
भर गया है शैतान
उनकी रगों में नफ़रत का ज़हर।
अब रातों को बातें नहीं होतीं।
रातों को बातों की जगह गालियाँ होतीं हैं।
नींद आती है तो
असुरक्षा के भाव से भरे लोग
कोशिश करते हैं नींद को परे ढकेलने की,
लेकिन नींद तो नींद है
आख़िर आ ही जाती है।
फिर सपने आते हैं,
जो आपस में टकराते हैं।
***
- ठाकुर दास 'सिद्ध'
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY