(ग़ज़ल) ठाकुर दास 'सिद्ध',
बदले वो कितने, बताने के दिन हैं।
अब उनको दर्पण,दिखाने के दिन हैं।।
जागे नहीं गर, जगाने से अपने।
तो उनका मातम,मनाने के दिन हैं।।
तन कर खड़े हैं, सितमगर अभी तक।
उनको ज़मीं पर,लिटाने के दिन हैं।।
बहुत कर लिए हैं,अँधेरे हुकूमत।
जलती मशालें, उठाने के दिन हैं।।
चुप से हमारी, सितम उनके जारी।
लातें कमर पर,लगाने के दिन हैं।।
उनके कपट की,हर इक दास्तां पर।
परदे पड़े हैं, हटाने के दिन हैं।।
आस्तीन में नाग, पलते रहे जो।
फन पर हथौड़े,चलाने के दिन हैं।।
अब 'सिद्ध' उनके,सितम की कहानी।
जन-जन को जाकर,सुनाने के दिन हैं।।
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